मंगलवार, 27 जुलाई 2021

ग़ज़ल 🌴


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पकड़कर     खम्भे   सभी चलते    रहे।

आप   अपने   को    स्वयं  छलते   रहे।।


एक    को    छोड़ा   कभी   दूजा    गहा,

ज़िंदगी    भर  हाथ   ख़ुद मलते     रहे।


बुद्ध,     ईसा,   राम,   वेदों   को     पढ़ा,

थम  न    पाए   एक   पर  टलते     रहे।


है    नहीं    पहचान    अपनी सोच     भी,

हिम   के    पिंडों  -  से  पड़े  गलते   रहे।


पालतू     ज्यों    भेड़    बाड़ों में    पड़ी,

हलवाइयों    के    तेल -   से  तलते  रहे।


जौंक   से  चुसवा   रहे   निज खून    को,

तुम    चुसे      वे    चूसकर   फ़लते   रहे।


रूढ़ियों     में   फाँस   कर  लूटा     सदा,

अन्नदाता    तुम    थे     वे   पलते     रहे।


हीनता     का    बोध   ही    बाँटा     गया,

माला       जनेऊ   डालकर दलते      रहे ।


ठगते     रहे   हिंदुत्व   को  ही तोड़   कर,

ए' शुभम' !   तुम    नित्य   ही खलते   रहे।


🪴 शभमस्तु !


२७.०७.२०२१◆१०.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

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