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✍️ शब्दकार©
🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आग त्याग की जो जला,होता स्वर्ण समान।
वही तपस्वी साधु भी,वह पावन वरदान।।
त्याग सहज होता नहीं,करते नाटक लोग,
गृह में स्थित गृहस्थ जो,गहने की पहचान।
दान कौड़ियों का करे,लिखता मुहर हज़ार,
छप जाता अख़बार में,दिखलाता है शान।
करता चोरी ग़बन जो,त्याग न पाए मैल,
जो चमड़ी पर है लगा,भरा नाक मुँह कान।
त्यागी बने विदेह- सा,करके महल निवास,
या तो तू सिद्धार्थ बन,करे जगत गुणगान।
नेता कहता देश की,संपति यदि मिल जाय,
सत्तर पीढ़ी चैन से, खाएँ बैठ पिसान।
'शुभम'त्याग मोदक नहीं,जो निगले हर एक,
आया था हरि भजन को,ताना काम-वितान।
🪴 शुभमस्तु।
२३.०७.२०२१◆१२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।
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