शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

रिमझिम बरसे मेघ सावनी 🌳 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रिमझिम  बरसे   मेघ सावनी,

अंबर  -  पट      में   छाए  हैं।

प्यास  बुझी  धरती  की सारी,

सबके    मन     हर्षाए     हैं।।


बड़ी  प्रतीक्षा  थी  सावन की,

कब   तक  घन     तरसायेंगे।

कब निदाघ के स्वेद -बिंदु नम,

वर्षा -  जल    बन    जाएँगे।।

वही स्वेद कण बादल बनकर,

वरुण   देव      बरसाए     हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ  सावनी,

अंबर  -  पट    में  छाए   हैं।।


घर,आँगन,गलियों,सड़कों पर

देखो      पानी   -  पानी    है।

राजा  है   वसंत  ऋतुओं का,

पावस    ही   ऋतुरानी    है।।

धानी पहन   शाटिका  धरती,

के  तृण - तृण     हरियाये  हैं।

रिमझिम   बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट     में   छाए   हैं।।


नदियाँ   अपने  यौवन  पर हैं,

सागर    से   मिलने     जातीं।

पिता हिमालय का घर छोड़ा,

इठलाती   हैं    बल   खातीं।।

खेत,बाग, वन   हरे -भरे   हैं,

अर्क , जवास     लजाए   हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए   हैं।।


छत  से   पतनाले    बहते  हैं,

पानी  धड़ -  धड़   गिरता है।

नाले उमड़  रहे  सड़कों  पर,

नाली   का   उर   चिरता है।।

तालाबों में  नित   स्वर  गूँजें,

सारी    रात      जगाए    हैं।

रिमझिम  बरसे मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में   छाए  हैं।।


वीर     बहूटी      शर्माती   हैं,

रेंग    रहे       केंचुआ    बड़े।

दादुर  टर - टर  करते  सर में,

बुला    रहे     दादुरी     पड़े।।

चढ़ीं  गिजाई  घास - पुंज में,

निकल   सर्प   भी  आए हैं।।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए   हैं।।


आनत   पादप - पल्लव  सारे,

बेलें      झुक       शर्माती   हैं।

चिड़ियाँ छिपीं नीड़ डालों पर,

भीग - भीग   चिचियाती  हैं।।

मेहो -  मेहो     मोर     नाचते,

मौन   सभी   पिक   पाए  हैं।

रिमझिम  बरसे   मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए   हैं।।


धान  रोपने  कृषक  चल दिए,

सँग  में    पत्नी   भी   जातीं।

बार - बार  झुक  पौध  रोपतीं,

श्रम से  तनिक  न  घबरातीं।।

छोटे  -   छोटे    बच्चे   प्यारे,

दंपति   के   सँग   आए    हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में    छाए  हैं।।


वधू   नवोढ़ा     पीहर   में  है,

याद   पिया   की   आती   है।

कुचचोली कस-कस जाती तो

मन  ही   मन    शर्माती   है।।

बैरी   सावन  के  झड़  लगते,

तन   में    आग   लगाए   हैं।

रिमझिम  बरसे मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए  हैं।।


कामदेव  कामिनि  बाला  को,

निशि- दिन  खूब   सताता है।

चैन नहीं  दिन में  है   मिलता,

निशि -  निद्रा  ले   जाता है।।

परिजन समझ  न पाएँ पीड़ा,

मन्मथ  निज  मुख  बाए  हैं।

रिमझिम   बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में   छाए   हैं।।


झींगुर की झनकार श्रवण कर

मन   में  डर -  सा   लगता है।

जुगनू   चमक   रहे  रजनी में,

चाँद  न   नभ  में दिखता है।।

तारे  घन -  चादर   को  ओढ़े,

बैठे    छिप     शर्माए       हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में    छाए   हैं।।


तीजें    हरियाली    रक्षा  के,

बंधन  का   है    पर्व   सखी।

चल  झूला   झूलें  बगिया में,

आ जा     मेरी     चंद्रमुखी।।

साजन   दूर    बढ़ाएँ    कैसे,

पींगें    'शुभम'   न   आए हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में    छाए   हैं।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०७.२०२१◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


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