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✍️ लेखक ©
📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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साहित्य और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। जहाँ समाज है , वहाँ उसका साहित्य भी है। प्राचीन मनीषियों ने 'सहितस्य भाव:इति साहित्यम' कहकर साहित्य को परिभाषित किया है।वस्तुतः साहित्य समाज को माँजता है। समाज की समस्त अच्छी - बुरी गतिविधियों को एक दर्पण की तरह प्रस्तुत करना ही साहित्य का कार्य है।
इतिहास यदि मुर्दों का साहित्य है ,तो साहित्य जीवितों का इतिहास है।वर्तमान को वाणी प्रदान करने के साथ भविष्य को दिशा देने का काम साहित्य के माध्यम से किया जाता रहा है और आज भी किया जा रहा है। यह एक कभी भी समाप्त नहीं होने वाली ऐसी धारा है , जो निरंतर समाज रूपी सागर में मिलती है और पुनः पावस के पवित्र मेघ बन कर उसी पर बरस जाती है।समाज के खारेपन को निरंतर निर्मल बनाती रहती है।
वाल्मीकि से लेकर अद्यतन बहती आ रही यह साहित्य धारा कभी भी सूखने वाली नहीं है। साहित्य विभिन्न विधाओं के माध्यम से हमारे समक्ष उपस्थित होकर मानव मात्र का कल्याण करता है।समाज ,व्यक्ति और देश ही नहीं मानव मात्र का हित करना साहित्य का लक्ष्य है।
प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह समकालीन और विगत साहित्य का अनुशीलन करे। 'साहित्य संगीत कला विहीन: साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः'के अनुसार उस व्यक्ति को मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं है ,जिसे अपने साहित्य से लगाव न हो।
साहित्य सृजन में भवों की प्रधानता होती है। भाव मानव से सम्बंध रखने वाली अमर अमूर्त साधना है। भाव और बुद्धि का समन्वय साहित्य में देखा जाता है। जो साहित्य जितना भाव प्रधान होता है ,वह उतना ही हमें और हमारे समाज के हृदय को स्पर्श करता है। केवल बौद्धिक विश्लेषण बुद्धि को कुरेदता भर है।स्पर्श नहीं कर पाता। यही कारण है कि सूर,कबीर ,तुलसी , बिहारी ,दिनकर, भूषण , कालिदास ,भवभूति आदि का साहित्य आज भी उतना ही जीवंत और अमर है ,जितना उनके समय में रहा होगा। ज्यों -ज्यों बुद्धिवाद बढ़ता गया ,समाज के सापेक्ष साहित्य भी नीरस औऱ उबाऊ बनता गया।अख़बार की तरह एक बार पढ़ने के बाद पुनः पढ़ने की इच्छा ही नहीं होती ।
साहित्यकारों का यह दायित्व है कि वे ऐसे साहित्य का सृजन करें, जो मानव मात्र का हितैषी और प्रेरक हो। धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष की ओर ले जाने वाला और सर्वांगीण विकास में सहायक हो। साहित्य के लिए साहित्य लेखन उचित नहीं है। जो साहित्य समाज का विकास न कर सके ,उसका औचित्य ही क्या है? साहित्यकारों को अपनी विद्वत्ता प्रदर्शन करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए। इसलिए उसे मानव मात्र के लिए सहज ,सुबोध औऱ सरस भाषा शैली में लिखा जाना चाहिए।यदि उसे पढ़ते समय शब्दकोष ही खोलना पड़ा, तो रस भंग होना ही है। इसलिए कोरी नट कला दिखाना उचित नहीं है। साहित्य के मूल में यही भाव निहित होना चाहिए:
'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक भवेत।
' 🪴 शुभमस्तु!
२०.०७.२०२१◆६.०० पतनम मार्तण्डस्य।
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