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✍️लेखक © ☘️
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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गोस्वामी तुलसीदास की एक प्रसिद्ध उक्ति है :' सबते भले वे मूढ़ जन ,जिन्हें न व्यापे जगत गति।' इस भूमंडल पर सारा खेल इसी 'जगत गति' का है।समस्त मानव जगत इसी 'जगत गति' से चलायमान है। बिना इसके मानव- जीवन का पत्ता भी नहीं हिलता। जिसके लिए दिन - रात जूझ रहा है, वह नहीं मिलता। निरंतर गतिशील रहकर ही उसकी मेहनत का पुष्प खिलता ! वह इस बात की तनिक भी चिंता नहीं करता , कि वह यह सब किसके लिए कर रहा है? क्या पाने के लिए कर रहा है? जिसे पाने के लिए जितना अधिक करता है , उतना ही वह उससे दूर जा विचरता है। और ! और!! और!!! की यह धुन उसे उसके प्रातव्य से दूर ही ले जाती रहती है। मानव की अनन्त तृष्णा उसे अपने प्रातव्य से कोसों नहीं , लाखों करोड़ों कोस दूर फेंक देती है, औऱ अंततः एक दिन वह क्षण भी आ जाता है ,कि उसे इस असार संसार से अंतिम विदाई का भी अनैच्छिक बुलावा आ जाता है।औऱ वह बुलावा टलनीय नहीं होता। जाना ही पड़ता है।
हमारी आज की बात 'मूढ़ जन' से प्रारंभ हुई थी।पुनः लौटकर वहीं पर आते हैं औऱ आगे की बात बताते हैं। मूढ़ होने में सबसे बड़ा सुख यही है कि उसे कुछ भी नहीं करना है। बस सुअर के कीचड़ में लोटने के सदृश मस्त रहना है। नाले की धारा समान बहना है। न किसी की सुनना है ,न किसी से कुछ कहना है। फिर किस बात की चिंता ,किस बात का तनाव ! न उधेड़ना न सीना। न जाना मुंबई न जाना बीना। न किसी को देना न किसी से छीना। सुख ही सुख ,शान्ति ही शांति ! न कोई क्रांति ! न कोई भ्रांति! बस एकमात्र शांति ही शांति!
फ़िर ये सब दिमाग़ वाले ! तरह -तरह की माँग वाले!! देह से स्वेद बहाने वाले! खेत में मेह पाने वाले!! सरकारी ,गैर सरकारी काम वाले! सरकार को सरकाने वाले! अपराध पर डंडा बरसाने वाले ! सड़क पर गिट्टी फैलाने वाले ! तिजोरियों में दस -- दस ताले लटकाने वाले ! धनिये में लीद मिलाने वाले ! पानी की दोहनी में दूध दुहने वाले! हल्दी, मिर्च में रंग , खोए में मैदा रिफाइंड मिलाने वाले! सड़क, पुल,भवन निर्माण में सीमेंट की जगह बालू से काम चलाने वाले!महीने पर वेतन पाने वाले! रोज की रोज कमाने खाने वाले! इन सभी को 'उसकी' आवश्यकता महसूस तो होती है। किंतु वे कभी एक प्रतिशत भी उसके पाने का प्रयास करते हुए दिखाई नहीं देते।
अनेक - अनेक भौतिक साधनों की भीड़ एकत्र करके मनुष्य सुख और शांति चाहता है । लेकिन क्या किसी को आज तक मिली? उत्तर एक ही है : नहीं। फिर कैसा सुख और कैसी शांति ? सब भ्रांति ही भ्रांति। इसकी खोज के लिए तो कितनों ने कपड़े रँग लिए , घर, पत्नी ,बच्चे ,माँ - बाप तजकर भाग लिए ,तीर्थ, व्रत, पूजा, ध्यान ,योग में रत हुए ; किन्तु क्या शांति मिली ? उत्तर फ़िर वही : 'नहीं मिली।'
सब मन का खेल है। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' परंतु प्रत्येक व्यक्ति रैदास तो नहीं हो सकता ! तथागत बुध्द नहीं हो सकता। राजा जनक अपने महलों में रहकर भी विदेह हो सकते हैं, लेकिन क्या संसार के अन्य सभी विरक्त जंगलों में रहकर भी विदेह हो सके ? उत्तर एक है : नहीं। पर चाहिए सबको।
अंतिम समय में देह को छोड़कर , घर परिजन से मुख मोड़कर , जब जीव रूपी हंस उस अनन्त की यात्रा पर जाता है ,तो हम सभी परम पिता परमात्मा से एक यही प्रार्थना करते हुए देखे जाते हैं: 'प्रभु दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे।' इस अपरिहार्य प्रार्थना को करने से पूर्व हमें जो कहना चाहिए, वह अंडरस्टूड (स्वतः समझने योग्य) ही रहता है। वह स्वतः समझने योग्य क्या है ? वह इस प्रकार बयां किया जा सकता है : ' हे प्रभु ! इस जीव ने सारा जीवन चिंता की आग में जल- जल कर काट दिया । जीवन भर खटता ,मिटता रहा ,कभी प्रभु नाम भी सच्चे मन से नहीं लिया।कभी शांति पाने का प्रयास भी नहीं किया। जो किया सब ढोंग और दिखावे के लिए किया। अपने नाम को चमकाने , अख़बार में फोटू और खबर छपवाने के लिए किया। पर शांति के लिए तिनका भर भी नहीं किया। अब तो वह चला गया। हे प्रभु !अब तो .........।' 'इस दिवंगत आत्मा को शांति दे ही दीजिए।' जो चाहिए थी, अपरिहार्य थी ,उसे ही भुला बैठा! अपने अहं के मायाजाल में ऐसा ऐंठा ! कि अंत तक करता रहा हाय बेटी , हाय बेटा! स्वनिर्मित चक्र में ऐसा लपेटा, कि ग्रीवा में कस गया कमर का फेंटा, फ़िर शांति से कैसे हो पाता भेंटा। तब तक दबा दिया यमपाश उसका टेंटा। तभी तो जीवित जन प्रभु से उसकी उस शांति को देने के लिए प्रार्थना करते हैं कि ' हे प्रभु!.........' भले ही वे सभी भी उसी श्रेणी के यात्री हैं , पर यहाँ तो सबको दूसरों को ज्ञान देने में पी एच.डी. की उपाधि जो मिली हुई है !
🪴 शुभमस्तु !
०१.०७.२०२१◆ ११.४५आरोहणम मार्तण्डस्य ।
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