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✍️ शब्दकार ©
🎍 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अपने सम्पूर्ण जीवन
ऑक्टोपस की तरह
अपनी आठ -आठ
भुजाओं से
किया संघर्ष,
पाने के लिए उत्कर्ष,
निरंतर अपार हर्ष,
पर नहीं समझी
आवश्यकता मेरी,
करता रहा आजीवन
मेरी - तेरी।
जब जाएगा छोड़कर
यह कीमती चोला,
उठेगा जिस दिन
तेरा आखिरी डोला,
अब तक तो तू
कुछ भी नहीं बोला,
क्योंकि तू जानता है,
इस बात को
सही मानता है,
कि यह काम तो
जाने के बाद
आने वालों का है,
जो कहते हैं :
'हे ईश्वर ! जाने वाली
आत्मा को शांति देना।
जो उड़ गई है
बिना पंख बिना डेना।'
जब दूसरे ही
शांति- पाठ कर रहे हैं,
ब्राह्मण देव मंत्र
पढ़ रहे हैं,
इसलिए लोग
अशांति के साथ
मर रहे हैं,
क्या आवश्यकता है
उन्हें शांति अर्जन की !
इसलिए आजीवन
खटते हैं,
औरों को मिटाकर
स्वयं मिटते हैं,
जरूरत पड़ी तो
पीटते -पिटते हैं,
लेते हैं
पैसे खर्च करके
बड़े -बड़े तनाव,
देते हैं लोगों को
गहरे - गहरे घाव!
यदि रहा है तो
जीवन भर
शांति का अभाव,
जो प्रत्येक आत्मा की
मौलिक आवश्यकता है,
शांति के बिना
रिक्तता ही रिक्तता है।
जीना है 'शुभम'
सबको कि
जीते जी मैं
अर्थात ' शांति '
मिल जाए ,
औऱ बिना पंखों का हंस,
सहजता से निकल जाए,
उस अनंत ब्रह्मांड में
उड़ जाए ,
क्योंकि
यही जीवन का
अनिवार्य सत्य है।
🪴 शुभमस्तु !
०१.०७.२०२१◆ ३.४५पतनम मार्तण्डस्य।
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