मंगलवार, 20 जुलाई 2021

बूँद कहते हैं मुझे 💧 [ बाल कविता ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार◆

💦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

बूँद    कहते     हैं   मुझे   सब  मोद   से।

मैं    निकलती    बादलों   की गोद   से।।


बादलों  ने     ही     मुझे    पाला   सदा।

मैं     किसानों     की    बढ़ाती   संपदा।।


बरसती     बरसात     में   हर  खेत   में।

बाग,   वन,  सरिता,   सरोवर, रेत   में।।


प्यास    धरती    की    बुझाती  बूँद   मैं।

आस    मानव     की    बढ़ाती खूब    मैं।।


चैन  मिलता    मोर,   पपीहा, कीर    को।

पेड़   -  पौधे       हर्षते     पा  नीर   को।।


नाच  उठता    कृषक  लख नभ   मेघमय।

मुदित    हो नर  - नारि   तजते  क्रोध भय।।


गरजते     हैं      मेघ    तब   डरते    सभी।

जा   घरों    में    दुबकते      हैं   वे    तभी।।


मैं   छतों ,    गलियों,   सड़क सबको भरूँ।

छत - पनालों  से   पतित   हो स्वर   करूँ।।


नग्न     होकर    नाचते    तुम  सब  फिरो।

फिसल  कर  भू पर कभी तुम भी    गिरो।।


निकल     पड़ते     हैं    गिजाई,   केंचुआ।

विर -  बधूटी    सिमटती   यदि  जो छुआ।


'शुभम'    पावस    का   सजल शृंगार  हूँ।

बूँद   मैं   सद   सिंधु,    सरिता   धार  हूँ।।


 🪴शुभमस्तु !


२०.०७.२०२१◆८.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...