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✍️शब्दकार©
🚀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आदमी से आदमी जलता रहा।
पेट के भीतर जहर पलता रहा।।
'मैं बड़ा हूँ रंग मेरा गौर है ',
अघ-विकारों से स्वयं छलता रहा।
जातियों में बाँट कर खंडन किया,
नफ़रतों का बीज ही फलता रहा।
पढ़ लिए हैं शास्त्र ज्ञानी भी बड़ा,
किंतु सूरज-चाँद-सा ढलता रहा।
यौनि- पथ तो एक था सबके लिए,
अंत सबका एक ही जलता रहा।
आपसी मन - भेद में बरबाद है,
नित अहं के पात्र में ढलता रहा।
भेद तो चौपाल तक ही जा थमा,
लाल लोहू दलित का भरता रहा।
नाश के लक्षण दिखाई दे रहे,👼
आत्मा की लाश पर चलता रहा।
दे दुहाई ग्रंथ की करता नहीं,
रूढ़ियों को फाड़कर सिलता रहा।
🪴 शुभमस्तु !
२८.०७.२०२१◆१२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।
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