बुधवार, 28 जुलाई 2021

ग़ज़ल 🚀


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✍️शब्दकार©

🚀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आदमी   से  आदमी  जलता रहा।

पेट  के  भीतर  जहर  पलता रहा।।


'मैं  बड़ा   हूँ  रंग   मेरा  गौर  है ',

अघ-विकारों से स्वयं छलता रहा।


जातियों  में  बाँट  कर खंडन किया,

नफ़रतों  का बीज  ही फलता रहा।


पढ़  लिए   हैं  शास्त्र  ज्ञानी भी  बड़ा,

किंतु  सूरज-चाँद-सा  ढलता रहा।


यौनि-  पथ तो एक था सबके लिए,

अंत  सबका  एक  ही  जलता रहा।


आपसी  मन -  भेद  में बरबाद  है,

नित अहं  के  पात्र  में  ढलता रहा।


भेद  तो  चौपाल  तक  ही जा थमा,

लाल  लोहू  दलित  का भरता रहा।


नाश   के  लक्षण   दिखाई   दे रहे,👼

आत्मा  की  लाश पर चलता रहा।


दे   दुहाई   ग्रंथ   की   करता नहीं,

रूढ़ियों को फाड़कर सिलता रहा।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०७.२०२१◆१२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

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