शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

बची हुई पूड़ियाँ 🟠 [अतुकान्तिका]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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राम लढ़ेती की अम्मा 

के घर पच्चीस साल बाद

उसके भैया सिंधु की 

नई वधूटी का गौना 

होकर आया है,

घर पड़ौस का वातावरण 

खुशबू ने महकाया है,

बहुरिया की 

मुँह दिखाई की रस्म

के लिए आई हैं

सुंदर - सुंदर बहुरियां

गाँव की बहुत सी

 बड़ी- बूढ़ीयाँ,

उधर बज रही हैं

नव बहुरिया की

हरी -हरी चूड़ियाँ।


सिंक रही हैं

धधकती भट्टी पर 

गरमा -गरम पूड़ियाँ,

आलू का रसीला 

महकता साग,

अपना-अपना भाग,

जो खाएगा 

नई बहुरिया के गौने का

पूड़ी - साग। 


खुशनुमा माहौल,

ढोलक है गीत हैं

मंगलाचार है,

राम लढेती की अम्मा

कभी बाहर कभी अंदर

लगाती -सी परिक्रमा,

कितना सुंदर है समा।


रतजगे में बीत गई 

सारी रात,

नाचती गाती बजाती रहीं

सिंधु की पड़ौसिन भाभियाँ

साड़ी में उड़से हुए

घर की चाबियाँ,

हँसी मज़ाक 

कभी -कभी नैतिकता भी

उठाकर रख दी ताक,

उधर छोटे बच्चे 

किवाड़ों की 

संधियों से रहे हैं झाँक,

महीना है ठंड का माघ ।


होते ही भोर,

खुली आँखों की

अलसाई कोर,

अम्मा ने देखीं

बची हुई पूड़ियाँ,

लगा -लगा कर नमक

खा रहे प्रेम से सुस्वाद

रात की बची पूड़ियाँ,

बच्चे बूढ़े बूढियाँ,

उधर बजती हुई सुनीं

उढ़के हुए किवाड़ों के

 पीछे कक्ष में 

हरी - हरी  'शुभम'  चूड़ियाँ।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०७.२०२१◆ ६.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

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