मापनी:122 122 122 122
चार चरण।
दो -दो चरण समतुकांत।
कुल 12 वर्ण।
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✍️ शब्दकार ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
चलें आज गंगा नदी में नहाएँ।
उरों में समाए अघों को नसाएँ।।
किसी का बुरा भी नहीं जो करेंगे।
धरा - धाम से वे सुकूँ से तरेंगे।।
-2-
सदा पावनी है सुधा वाहिनी है।
हमारी सु - गंगा सदा दाहिनी है।।
बिना काम के क्या मिलेगा यहाँ से।
बिना बीज बोए न पौधा धरा पे।।
-3-
हजारों युगों से बही जा रही है।
सभी पापियों से दबी जा रही है।।
खगों ,मानवों और जीवों, द्रुमों से।
धरा को रिझाती सु-गंगा जलों से।।
-4-
त्रिवेणी कहाती मिली तीन धारें।
सभी तीर्थ का राज होता यहाँ रे।।
जगी ज्योति पापों कुशापों नसाती।
धरा - धाम में धीरता को बसाती।।
-5-
हरी है भरी है धरा ये हमारी।
त्रिधारा बही है युगों से तुम्हारी।।
मिटाते अघों को शिवा -शंभु प्यारे।
'शुभं' तू कभी हो न भोला निनारे।।
🪴 शुभमस्तु !
१९.०७.२०२१◆२.४५पतनम मार्तण्डस्य।
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