सोमवार, 19 जुलाई 2021

गंगा [ छंद :भुजंगप्रयात ]


मापनी:122 122 122 122

चार चरण।

दो -दो चरण समतुकांत।

कुल 12 वर्ण।

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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

चलें    आज    गंगा   नदी में नहाएँ।

उरों  में   समाए   अघों  को नसाएँ।।

किसी  का बुरा  भी  नहीं जो करेंगे।

धरा - धाम  से   वे  सुकूँ   से तरेंगे।।


                       -2-

सदा   पावनी     है   सुधा  वाहिनी  है।

हमारी   सु - गंगा   सदा  दाहिनी   है।।

बिना   काम   के  क्या  मिलेगा यहाँ से।

बिना   बीज   बोए  न  पौधा धरा   पे।।


                        -3-

हजारों   युगों   से   बही  जा  रही   है।

सभी  पापियों  से  दबी   जा रही   है।।

खगों ,मानवों   और    जीवों, द्रुमों   से।

धरा   को   रिझाती    सु-गंगा जलों से।।


                         -4-

त्रिवेणी     कहाती    मिली  तीन  धारें।

सभी   तीर्थ  का   राज  होता यहाँ  रे।।

जगी  ज्योति   पापों  कुशापों   नसाती।

धरा -  धाम   में  धीरता  को    बसाती।।


                      -5-

हरी     है     भरी    है   धरा  ये     हमारी।

त्रिधारा    बही    है    युगों   से    तुम्हारी।।

मिटाते   अघों    को  शिवा -शंभु    प्यारे।

'शुभं'  तू  कभी  हो   न   भोला   निनारे।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०७.२०२१◆२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

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