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✍️ शब्दकार©
💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सलज स्मिति का
सजल गुलाल,
नयन के द्वार
जा धँसा
उर के कोने - कोने में
जा बसा,
बढ़ती ही गई
अतृप्त तृषा,
दोंगरे की
आषाढ़ वर्षा ।
बही
बहती गई,
तन -मन में
धारा प्रवाह,
विचित्र -सी
चाहत चाह
यही था
स्मिति का चमत्कार।
हँसी कलियाँ
करतीं अलि संग
रँगरलियाँ,
नहीं मुस्कराने में
रहे समर्थ,
न जिनको
स्मिति का कुछ अर्थ
श्वान,बिल्ली,गदहा या
अश्व ,
विशाल कुंजर
गीदड़ ,शशक लघु,
मनुज के लिए
लिए नव अर्थ
स्मिति का
अपना अति स्वार्थ
नहीं जाता है व्यर्थ।
न कोई शब्द,
नहीं ध्वनि की लहर,
अंगों में हृतकम्प
उसी क्षण प्रहर,
ज्यों बोलती
ग़ज़ल की बहर,
जाती किस
कोने ठहर!
इधर स्मिति की रेख,
उधर नयनों में
स्पंदन अदेख,
झुक गईं उठीं
युगल पलकें,
ज्यों संध्या को
पश्चिम नभ में
मेघा ढलते,
लहराती घुँघराली
ललाट पर
कामिनि की अलकें,
उर के भीतर त्यों
स्पंदन की
विद्युत चमके।
संदेश बिना ही तार,
तीव्र रफ़्तार,
करती तन -मन में
विचित्र चमत्कार ,
'शुभम' प्रस्रवित हुए
नव नेह हार्मोन,
न अंतर्जाल
नहीं कोई भी फोन,
स्मिति से अंततः
बच पाया है कौन!
🪴 शुभमस्तु !
२२.०७.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।
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