शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

खिचड़ी-आहार का आनन्द🪞 [अतुकान्तिका]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चम्मच को छोड़कर,

तर्जनी को मोड़कर,

दाल -चावल से बनी,

देशी घृत में सनी,

काँसे की थाली में

खिचड़ी का आहार

परम सुस्वाद

आनंद में विहार।


अपना -अपना विधान,

नहीं कोई अनुसंधान,

परम्परा प्राचीन,

नहीं सीख यह नवीन,

करें तो जानें,

मेरी कही न मानें,

अहा!   भूले नहीं भूले,

खिचड़ी खाने का आनन्द।


समापन 

खिचड़ी आहार का,

शब्दातीत है ,

मात्र एक रसना की

प्रतीति है,

एक -एक दाने को

जिह्वा से चाट जाने का

क्या ही समाहार है!

पर यह तो

उपसंहार है,

पराकाष्ठा ज्यों

 ब्रह्मानंद की,

सीमा अनंत है,

भोजन का भी

कभी आता वसंत है।


खिल उठती है

रसना की रस ग्राहक 

कली - कली,

ज्यों भ्रमर को

मिल जाए

पुष्प में मकरंद की डली,

लगती है उसे

कितनी भली।


जो खाए,

वही पाए,

कैसे शब्दों में बताएँ,

खिचड़ी के गुण गाएँ,

इधर देशी घृत,

उधर खिचड़ी के सँग

बना अमृत,

तृप्ति का  'शुभम'अंत नहीं,

मिलता है  कभी कहीं,

इसी धरा पर

यहीं कहीं,

जो जानें,

 वही मानें,

कुतर्की क्यों

व्यर्थ में अंगुलियाँ

अपनी सानें।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०७.२०२१◆५.१५आरोहणम मार्तण्डस्य।

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