शुक्रवार, 10 मार्च 2023

क्रीड़ा करती कल्पना 🪴 [ कुंडलिया ]

 111/2023

        

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

होती  वैसी   कल्पना, जैसा  हो  उर - भाव।

भली-बुरी   सब  तैरतीं, भीतर अपने नाव।।

भीतर  अपने  नाव, वही   सरि पार  लगातीं।

जो लेतीं झकझोर, नाव मँझधार   डुबातीं।।

'शुभं'थाम पतवार,प्राप्त कर उज्ज्वल मोती।

रहे कल्पना शुद्ध  ,वही  नित हितकर होती।।


                         -2-

कविता में नव कल्पना,भरती है    नव  रंग।

ज्यों निधि में लहरें उठें,बनती विपुल तरंग।।

बनती विपुल तरंग,किनारे तक  छा  जातीं।

वैसे  उठें  उमंग,  सृजेता  मनुज   बनातीं।।

'शुभं'गया उस लोक,नहीं पहुँचे कर-सविता।

भरते भाव उड़ान,दिव्य रच जाती कविता।।


                         -3-

होता  है  विज्ञान  का, विपुल गूढ़तम   क्षेत्र।

क्रीड़ा  करती  कल्पना, खुलें बंद  जो  नेत्र।।

खुलें  बंद   जो  नेत्र, चौंकती दुनिया  सारी।

होते  नित  प्रति  शोध,ज्ञान से जाती  हारी।।

'शुभम्'शृंग आकाश, पयोनिधि में  ले  गोता।

मिले नवल चमकार, कल्पना से सब होता।।


                         -4-

हिंदी के  सहित्य का,सागर विशद   विराट।

गद्य-पद्य  की  हर  विधा,है प्रदीप्त  विभ्राट।।

है  प्रदीप्त  विभ्राट ,कल्पना के  रँग  इतने।

रवि -किरणें शत लाख,भाव उर में हैं उगने।।

'शुभम्' गीत  संगीत, भाल की जैसे   बिंदी।

छंद  सरस  संसार,भारती की शुचि   हिंदी।।


                         -5-

मानव  के  उर  लोक  में,उगते भाव अनेक।

आधारित नव कल्पना, जाग्रत  रहे  विवेक।।

जाग्रत   रहे   विवेक,  नहीं  है सीमा  कोई।

है  अनंत  आकाश,  कल्पना नूतन   बोई।।

'शुभम्' नेह के भाव,घृणा से भरता  है  भव।

बनता स्वर्ग समान,बनाए यदि जग मानव।।

🪴शुभमस्तु !


10.03.2023◆12.45 प.मा.


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