136/2023
■●■●■●■●■●■●■●■●■●
✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■●■●■●■●■●■●■●■●■◆
दम्भ, अकड़, घमंड की समता।
जो अकड़े नर क्यों अब झुकता??
अकड़े सूख गई जो शाखा।
ईंधन बना उठाकर राखा।।
शव बन गया अकड़ क्या होना?
उसको पड़ा प्राण निज खोना।।
शव की अंतिम क्रिया जलाना।
भू में दफना सरित बहाना।।
मानव - अकड़ न सहता कोई।
लिपि अंकित ललाट सब सोई।।
सरस विनत मानव जो होता।
सुखद शांति के बीज न बोता??
जब तक रस्सी में बल होते।
अकड़ न जाती नर वे रोते।।
अकड़ बुद्धि हर लेती सारी।
मुरझाती नर की हर क्यारी।।
जहाँ धरा में तीत न थोड़ी।
जोती जाती और न गोड़ी।।
ढेले पड़े अकड़ दिखलाते।
चलने में पग में चुभ जाते।।
अकड़ छोड़ सतीत बन जाएँ।
तब सादर मानव कहलाएँ।।
'शुभम्' कहे मानो ,मत मानो।
नर - जीवन विनीत ही जानो।।
🪴शुभमस्तु !
27.03.2023◆4.00प.मा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें