126/2023
■●■●■●■●■●■●■●■●■●
✍️ शब्दकार ©
🏡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■●■●■●■●■●■●■●■●■●
ईंटों से मकान की रचना।
मत घर की परिभाषा कहना।।
बहती जहाँ नेह की गंगा।
न हो हया बिन मानव नंगा।।
सर्प नहीं घर आप बनाते।
अन्य बने घर में घुस जाते।।
महल अटारी भवन सजाए।
संस्कार से नर बन पाए।।
घर - घर में चूल्हे माटी के।
अनुगामी जन परिपाटी के।।
सबके घर की एक कहानी।
वही दाल रोटी सँग पानी।।
घरवाली कहलाती घरनी।
नैया घर की पार उतरनी।।
घरनी बिन घर भूत - बसेरा।
कहे न कोई मेरा - तेरा।।
छिपता भानु लौट घर आए।
खग पालित पशु शीघ्र सिधाए।
घर में सुख की सेज हमारी।
नींद जहाँ आती अति प्यारी।।
घर मिल बस्ती गाँव बनाते।
जन-जन के मन को वे भाते।।
हाट और बाजार हमारे।
घर के ही विस्तार निनारे।।
आओ घर को सुघर बनाएँ।
नेह एकता उर भर लाएँ।।
'शुभम्' भले झोंपड़ी हमारी।
रहें नीड़ घर में नर - नारी।।
🪴शुभमस्तु !
20.03.2023◆1.00प.मा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें