139/2023
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✍️ शब्दकार ©
🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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लड़ने को
कुछ तो चाहिए,
अवश्य चाहिए,
रंग ही सही,
एक आधार तो मिला,
हथियार भी मिला!
सबने अपना -अपना
रंग स्वयं चुना,
अथवा चुना चुनाया मिला?
इससे अंतर भी
क्या पड़ा?
लड़ने को
मैदान तो चाहिए ही था,
वह मिल ही गया!
टमाटर को लाल,
भिंडी लौकी को हरा
बैंगन बेचारा
बैंजनी ही भला,
चुकंदर सुर्ख लाल,
मूली सफेद हरी,
कभी लाल
कभी हरी मिर्च,
सबके अपने -अपने रंग।
क्या प्रकृति के मन में
ऐसा भी कोई भाव रहा,
कि रंग लड़ने का
हथियार भी बनेगा!
पर बना,
बन के रहा।
कोई सवर्ण ,
कोई अवर्ण,
गोरा काला,
बिना लड़े
पचता नहीं निवाला,
लगा नहीं सकता
आदमी अपने
मन की जुबान पर ताला।
छूत - अछूत
छोटा - बड़ा,
वेश्या के पद पखार
छूने न दे माटी का घड़ा,
किन्तु नहीं कर पाया
रक्त का रंग
लाल से हरा,
परदे के भीतर
कुछ भी कर मरा।
आदमी किंतु
कर्मों से नहीं डरा,
सावन के अंधे को
हर क्षण दिखा
हरा ही हरा,
अपनी ऊँचाई के समक्ष
दूसरा उसके
जूते का तला!
कैसे होगा 'शुभम्'
इस हीनता- बोधबद्ध
मानव का भला?
जो बनावटी बाहरी
रंगों में ढला।
🪴शुभमस्तु !
30.03.2023◆9.30 प.मा.
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