115/2023
■●■●■●■●■●■●■●■●■●
✍️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■●■●■●■●■●■●■●■●■●
परी घृताची आई गंगा।
गात सुघर शोभित अधनंगा।।
पा एकांत स्नान की जागी।
इच्छा, उर में बन अनुरागी।।
लगी नहाने तट पर जाकर।
भरद्वाज ऋषि चौंकें मन भर।।
देख घृताची को मन मोहा।
क्षण में ऊपर से अवरोहा।।
मन्मथ ने मन को मथ डाला।
दूषित होती वह मृगछाला।।
ऋषि का वीर्य स्खलित होता।
जागा काम रहा जो सोता।।
रखा द्रोण में वीर्य सहेजा।
वृथा नहीं कर रेज़ा - रेज़ा।।
जन्मे फिर गुरु द्रोण उसी से।
भरद्वाज पितु की करनी से।।
थे गुरु द्रोण सु-प्रतिभाशाली।
निज कौशल से विद्या पा ली।।
धनुर्बाण के वे गुरु ज्ञानी।
और नहीं कोई था सानी।।
कौरव - पांडव के गुरु नामी।
सभी द्रोण को कहें नमामी।।
अर्जुन प्रियकर शिष्य तुम्हारा।
मार बाण निकले जलधारा।।
🪴शुभमस्तु !
13.03.2023◆12.45प.मा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें