गुरुवार, 2 मार्च 2023

मेला 💞 [ सोरठा ]

 98/2023

             

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✍️ शब्दकार ©

💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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स्वार्थ   पीटता  ढोल,जहाँ मेल मेला वहीं।

रहे मनुज विष घोल,मन ही मैले हो गए।।

मैला  मेला  मीत, एक  संग मिलते नहीं।

क्या झूले से  प्रीत,मीठी  नहीं जलेबियाँ।।


करे स्वयं की खोज,खोया मेला में मनुज।

भटक रहा पथ रोज,कैसे औरों से मिले।।

गई   एक   दिन- रात, मैं   मेला  में   घूमने।

करती किससे बात,अपना मिला न एक भी।


अब तो बस व्यापार, जीवन मेला  मात्र   है।

सुख से दिन दो चार,सीधा उल्लू कर जिओ।

हँसी -खुशी रसलीन,वे दिन मेले के गए।

बने  हुए  अति दीन, मेला लूटें आप  ही।।


झूला   झूलें   खूब,खाईं मधुर जलेबियाँ।

कहाँ  हरी  अब दूब, मेला के दिन जा चुके।।

बढ़ती   भीड़  अपार, मेला जीवन का लगा।

शेष न उर में प्यार, सभी अकेले    घूमते।।


मिले गिने दिन चार,जीवन- मेला देख लो।

जरा समापन वार,बचपन,यौवन,प्रौढ़ता।।

मेला होता मीत, नहीं अकेले से कभी।

जीवन का नवनीत,चार दिनों की चाँदनी।।


सबका मेला मीत, केवल बालक ही नहीं।

सजता जीवन -गीत,जब उर उर से मिले।।



🪴 शुभमस्तु !


02.03.2023◆1.30 प.मा.

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