सोमवार, 27 मार्च 2023

ज्यों केले का पात 🥏 [अतुकांतिका ]

 130/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🥏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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ज्यों केले के

पात में 

पात,

पात में पात,

त्यों इस 

मानुष जात में,

चरितों के

छिपे हुए दिन- रात।


कसने पर सोना,

समीप बसने पर

मानुष 

अलोना सलोना,

फिर  भी नहीं

जान पाएँ

उसका हर कोना,

इसी बात का तो है

रोना।


न होता यदि

इतना भितरघाती इंसान

नहीं लिखे जाते

रामायण साहित्य पुराण,

बदनाम है त्रिया चरित्र

अपनी गहराई के लिए,

पुरुष क्या कम है,

उसके बहुरूपियापन में भी

बड़ा दम है,

वैसे तो कोयल कागा

की वाणी से पहचान है,

लेकिन ये आदमी

उससे भी 'महान' है!


ये कविताएँ

ये कहानियाँ

ये लघुकथाएँ

ये महाकाव्य

ये उपन्यास,

सभी हैं आदमी के

चरित्र का विन्यास।


उधेड़ते जाओ

परत दर परतें 

खुलती जाएँगी,

और अंत में

एक निराशा ही

हाथ आएगी।


ये मुखौटे !

ये वसन आभूषण!

नहीं उजलाते उसके

चरित्र का दूषण,

फितरत ही यही है

परस्पर शोषण या चूषण,

रावण हो 

मारीच हो

कंस या खर दूषण,

फैलाया ही गया

सदा से चरित्र का

प्रदूषण।


आदमी ही 

आदमी का आहार,

पुतिन हो या अन्य

आदमी हो रहा

आतंकवाद का शिकार,

सर्वत्र नरमेध

नर माँस का व्यापार,

सत्ता की अंधी भूख,

देख सुन 

काँप- काँप जाते

पीपल शिंशुपा

वटवृक्ष के रूख,

हृदय में तब

होता है बहुत दुःख,

चाहता हर आदमी

बस अपना ही सुख,

इसीलिए खुला रखता है

अपना बड़ा मुख।


दूध के जले

छाछ भी पीते हैं

फूँक- फूँक कर,

झुकने वालों को

मूर्ख समझती है दुनिया,

उसे सुहाता है 'शुभम'

अपना ही

हरमुनिया,

कोयल कागा का भेद

सहज नहीं है यहाँ।


🪴शुभमस्तु !


24.03.2023◆4.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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