गुरुवार, 2 मार्च 2023

लुटिया डुबाऊ वे ! (व्यंग्य )

 99/2023


■●■●■●■●■●■●■●■●■●

✍️ व्यंग्यकार©

⚱️ डॉ .भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■●■●■●■●■●■●■●■●■●

ये तो वे भी भली भाँति जानते ही हैं कि लुटिया तो डूबनी ही है।जब अपनी ही नहीं बचा सकते ,तो देश की कैसे बचा पाएँगे।उधर लुटिया लुटिया की क्षमता की बात भी है। उनकी अपनी लुटिया चुल्लू भर पानी की है।जो डूब भी गई तो क्या?  इससे किसी का कुछ अहित नहीं होगा। किंतु जब देश की बात आती है ;देश की लुटिया डूबने से बचाने की बात आती है,तो माथे पर बल आ ही जाते हैं। यह स्वाभाविक भी है।

  कुछ लोग स्व-आत्ममुग्धता के  शिकार इस सीमा तक होते हैं, कि उन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे कितने पानी में हैं।जब तक पानी उनके गले ही नहीं ;ऊपरी मंजिल के प्रथम प्रवेश द्वार में नहीं जाने लगता ,तब तक वे खर्राटे मार कर सपने देखने में तल्लीन रहते हैं।और वे बराबर सपने देख रहे हैं। भला सपने देखने पर भी क्या रोक ?,क्या रुकावट? उन्हें नहीं है अभी तक बाहरी दुनिया की आहट। होगी भी क्यों? वे आत्म मुग्ध जो ठहरे! इसीलिए तो हैं उनके उभय कर्ण सर्वथा बहरे! भला कैसे नाप सकेंगे वे नदी नाले हैं कितने गहरे ? उन्हें तो लुटिया भर चुल्लू में डूब ही जाना है।और डुबाने का सारा श्रेय किसी अंदरूनी पर गिराना है।

देश की भलाई के किसी भी काम में उन्हें भलाई दिखाई नहीं देती । वे इस बात की कसम खाकर ही बैठे हैं,कि भले को भला नहीं कहना। छोटे से छिद्र में भी अपनी अँगुली प्रवेश करके उसे बड़ा करते रहना।कोई भी जीव अपनी प्रकृति से भिन्न कुछ भी नहीं कर सकता।मनुष्य भी एक जीव है, उसकी भी अपनी प्रकृति है।यह भी कोई अनिवार्य नहीं कि मानव शरीर में प्रत्येक जन मानव ही हो। सम्भव कि  उसके किसी सत्कर्म के कारण उसे मानव देह प्राप्ति का लाभ सुलभ हो गया हो,किन्तु प्रारब्ध के संस्कार की शक्ति कहाँ जाएगी। इसलिए कुछ मानव देहधारी जीव गिद्ध,बाज, चील,मच्छर, खटमल तथा अन्य हिंसक जीव की प्रकृति न छोड़ पाने के लिए बाध्य हैं।सफेद पंख धारण करके बगुला हंस नहीं हो सकता।फिर उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे देश की लुटिया डुबाने आए हैं या शक्ति संतुलन के भारी बाँट बनकर उभरे हैं।

स्पीड - ब्रेकर का काम ही स्पीड को ब्रेक करके चलती हुई तेज रफ्तार गाड़ी को धीमा कर देना है। वे भी पूरी लगन के साथ इसी काम को अंजाम दे रहे हैं।नदी पार करते समय गाय की देह पर चिपकी हुई जोंक की तरह वे देश का रक्त चूस रहे हैं।जोंक किसी की मित्र नहीं हो सकती ।तो वे भी कैसे देश के हितचिंतक हो सकते हैं! बल्कि देश का हित चिंतन कर्ताओं की पीठ में सूजे ठोंकने की जुगत ढूँढने में खोए रहते हैं।लुटिया डुबाऊ उनकी कोई नीति है न नैतिकता।जैसे भी हो उन्हें डुबाना ही है।

लुटिया डुबाकर खटिया खड़ी करने की उनकी जिद बंटाढार करने पर तुली हुई है।ऐसे लुटिया डुबाने को उतारू लोगों से देश खाली नहीं है।वह अच्छा ही है कि उनका पलड़ा सामने के पलड़े की तुलना में आसमान में टंगा हुआ है, अन्यथा लुटिया  डुबाने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।उन्होंने पहले से ही यह धारणा बना रखी है कि  हम तो डूबे हुए ही हैं सनम ,तुम्हें भी डुबाने की कसम खाए बैठे हैं।बिल्ली खाएगी नहीं तो लुढ़का तो देगी ही।बेपेंदी की लुटिया किस करवट क्या करे, यही देखा समझा जा रहा है।किसी  को डुबा तो पाएगी नहीं, स्वयं डूबकर इतिहास  का काला पृष्ठ  अवश्य  बन जाएगी।

🪴शुभमस्तु !

02.03.2023◆6.00प.मा.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...