110/2023
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✍️लेखक ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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यह चर्चा वर्ष 1988 की है।उस समय मैं राजकीय महाविद्यालय जलेसर (एटा) में हिंदी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत था।देश में तीसरी नई शिक्षा नीति के अंतर्गत पुस्तकालय के लिए पुस्तकें क्रय की जानी थीं।तत्कालीन प्राचार्य डॉ. जगन्नाथ आर्य जी द्वारा यह कार्य मुझे सौंपा गया औऱ जलेसर से पचास किलो मीटर दूर आगरा शहर से इस कार्य को संपादित करने के लिए भेजा गया। मेरा गाँव भी आगरा के पास ही जलेसर मार्ग पर जलेसर से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसलिए मैं कार्य संपादन हेतु आगरा बस द्वारा जा पहुँचा।
आगरा में भगवान टाकीज से थोड़ा आगे एक बहुत बड़ा और देश -प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान है; सहित्य भवन।वह उस समय देश के लगभग सभी राज्यों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के अनुसार पुस्तकें प्रकाशित करने औऱ उन्हें वितरित करने का कार्य करते थे;आज भी करते हैं।उस समय उस प्रकाशन संस्थान के स्वामी श्री आर.एस. बंसल जी थे।
सहित्य भवन पहुँचकर मैंने श्री बंसल जी से सम्पर्क किया।उन्होंने उस समय अपना पूरा संस्थान दिखलाया कि कहाँ- कहाँ क्या - क्या कार्य होता है।ऐसा लग रहा था कि पुस्तकों का सागर ही उमड़ रहा हो। जिधर जाएँ वहाँ पुस्तकें ही पुस्तकें।उन्होंने अपना वह कम्प्यूटर कक्ष भी दिखलाया ,जहाँ एक बड़े कक्ष में कई कम्प्यूटर सेट्स पर कुछ लोग कार्यरत थे।
पुस्तकों के क्रय के सम्बंध में बातचीत करने के बाद जब मैं घर जाने के लिए बाहर आने लगा तो उन्होंने पूछा कि आप कहाँ रहते हैं। मैंने उन्हें बताया कि यहीं से दस- बारह किलोमीटर की दूरी पर मेरा छोटा- सा गाँव है।आज वहीं रुकूँगा। कल कालेज जाऊँगा।मैंने उन्हें बताया कि किसी बस आदि से जाऊँगा।
इस पर वह बहुत प्रसन्न हुए और बोले:' चलिए मैं आपको घर पहुँचाकर आता हूँ।'और तुरंत उन्होंने न तो किसी चालक को आदेश किया और न किसी और को बुलवाया।स्वयं ही गाड़ी निकाली औऱ बोले :'बैठिए। आपके घर चलते हैं।'उनके इस आकस्मिक सद्व्यवहार से मैं अपने अंतर से अभिभूत हो गया और उनका इतना स्नेह पूर्ण व्यवहार देखकर कुछ भी कहते न बना।उस समय श्री बंसल जी की अवस्था लगभग सत्तर वर्ष रही होगी।
वे ड्राइवर सीट पर आसीन हो गए औऱ अपनी ही बराबर मुझे बैठा लिया।बोले:'आप मुझे रास्ता बताते चलिए ;मैं गाड़ी चलाता हूँ।' बहुत मुश्किल से अभी मात्र बीस -पच्चीस मिनट व्यतीत हुए होंगे कि हम लोग अपने गाँव अपने घर पर पहुँच चुके थे।
उस समय अपने बग़ीचे में पपीते के कुछ पेड़ों पर पीले- पीले पपीते पके हुए थे।उन्हीं को काटकर उनकी आवभगत की गई। उस समय गाँव में अतिथियों को चाय आदि पिलाने का इतना अधिक प्रचलन भी नहीं था।इसलिए दूध ,गुड़ ,मट्ठा आदि से ही स्वागत किया जाता था।श्री बंसल जी ने प्रेम से पपीते खाए ,जो मेरे पिताजी के द्वारा सेवर्पित किए गए थे।जब वे जाने लगे तो कुछ पके हुए फल उनकी गाड़ी में भी रखवा दिये।श्री बंसल जी का वह स्नेह पूर्ण व्यवहार मुझे कभी भी नहीं भूला।आज भी कभी -कभी उनके इस स्नेह का स्मरण हो आता है। बार- बार यही सोचता हूँ कि संसार में ऐसे भी निरभिमानी और सादगी पूर्ण व्यवहार के धनी महापुरुष भी होते हैं,जो मेरे जैसे एक अकिंचन के उर- स्थल में सदा- सदा के लिए अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाकर अमर हो जाते हैं।ऐसे महापुरुषों को मैं हृदय से नमन करता हूँ।
🪴 शुभमस्तु !
10.03.2023◆7.30 आ.मा.
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