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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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जीवन को त्योहार बनाएँ।
मन को सुमनों-सा महकाएँ।।
सोच सदा हो युक्त सकारा।
सदा बहे सुरसरि की धारा।।
त्योहारों की हूल निराली।
खुशियाँ वहाँ बजातीं ताली।।
विजयादशमी या दीवाली।
झूम उठे होली में डाली।।
उत्सव बारह मास मनाते।
जाता एक अन्य फिर आते।।
सावन,भादों, कार्तिक, फागुन।
अलग-अलग बजती उत्सव धुन।।
फहराता है कभी तिरंगा।
पर्व दशहरा पावन गंगा।।
चैत्र शरद नव दुर्गा आतीं।
श्रद्धा सह नर - नारि मनातीं।।
जीवन में सुख - दुख का आना।
नया नहीं ये राग पुराना।।
रजनी - दिन ज्यों आते - जाते।
तम - उजास की महिमा गाते।।
वैसे ही त्योहार पर्व हैं।
जीते जन-गण मन सगर्व हैं।।
नई चेतना वे लाते हैं।
कल में तेल लगा जाते हैं।।
हर पल है त्योहार हमारा।
उषः काल फिर भोर सकारा।।
दोपहरी फिर साँझ सुहाती।
तारों भरी रात तब आती।।
मित्रो बात समझने वाली।
दीवाली , जब हो खुशहाली।।
'शुभम्' सदा त्योहार मनाएँ।
बाँटें हर्ष विषाद न लाएँ।।
🪴शुभमस्तु !
31.10.2022◆1.00
पतनम मार्तण्डस्य।
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