165/2023
■◆■◆■■◆■◆■◆■◆■◆■◆
✍️ शब्दकार ©
🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
भावों की साकारता,है कविता का रूप।
दात्री वीणावादिनी , बना रही कवि यूप।।
कविता को मत जानिए,शब्दों का भंडार।
भाव,व्यंजना,छंद,रस,गति लय की चमकार।
कविता है शुचि साधना,करती जग कल्याण।
जन-जन,देश,समाज में,भरती है नित प्राण।
कविता-वाणी सत्य की,नहीं अनृत का काम
कविउर शांति प्रदायिका,चले न सतपथ वाम
कविता अर्जन का नहीं, साधन जानें आप।
ज्ञान-भानु चढ़ता रहे,मिटें जगत के ताप।।
सतत साधना कीजिए, नित्य निरंतर मीत।
कविता शुभकारी सदा,होता स्वयं प्रतीत।।
कंचन कामिनि की करें,कविता से मतआश।
उर की निर्मलकारिणी,कविमानस का प्राश।
कविता मानव-मूल्य की,रक्षक सदा असीम।
पाप-ताप काटे सदा,तन-मन निवसित भीम।
होती गुरु,माँ की कृपा,कविता करता व्यक्ति।
माला महके शब्द की,मिले अपरिमित शक्ति
निंदा-रस लेना नहीं,कविता में क्या काम!
नहीं विमुख हो सत्य से,कवि का होता नाम।
कविता से मन-देह के, होते दुर्गुण दूर।
गंगावत पावन करे,पाप अहं को चूर।।
🪴शुभमस्तु !
12.04.2023◆6.45आ०मा०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें