रविवार, 30 अप्रैल 2023

एक श्रमिका सर्वहारा 👩🏻‍🍼 [ गीत ]

 181/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

👩🏻‍🍼 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धरे सिर  पर  बोझ जाती

एक श्रमिका सर्वहारा।


जेठ   की है   धूप  भीषण,

सड़क भी   तपने  लगी है।

दीन    नारी     पाँव    नंगे,

प्यास तन-मन की जगी है।।

बेचती    भारी    लकड़ियाँ,

है   नहीं   कोई    सहारा।


वस्त्र  से   लज्जा ढँकी बस,

पाँव  घुटनों    तक   उघाड़े।

जा  रही  निश्चिंत  पथ  पर,

आ  सका कोई   न   आड़े।।

बाँध आँचल से अबल शिशु,

पी रही  दृग  नीर  खारा।


पक गए हैं कान सुन - सुन,

हम    मिटा   देंगे    गरीबी।

चाभते     बादाम     पिस्ता,

काजुओं  के  भोग  कीवी।।

ढोल    पीटे  जा   रहे    हैं,

जिंदगी  की शुष्क  धारा।


जिंदगी -   से   बाल   उलझे,

ऐंडरी  सिर    पर   धरी   है।

देह     काँटे  -  सी    हुई   है,

हो  रही    वह   अधमरी  है।।

आदमी        बेचारगी       में,

रात-दिन भीषण कु-कारा।


सोचती   है     बोझ     भारी,

हो    मिलेंगे    अधिक   पैसे।

खा  सके    भर    पेट    रोटी,

कर रही    नित    यत्न ऐसे।।

आयु   से    लगती    अठारह,

चुक गया अस्तित्व  सारा।


🪴शुभमस्तु!


28.04.2023◆4.00आ०मा०

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