181/2023
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✍️ शब्दकार ©
👩🏻🍼 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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धरे सिर पर बोझ जाती
एक श्रमिका सर्वहारा।
जेठ की है धूप भीषण,
सड़क भी तपने लगी है।
दीन नारी पाँव नंगे,
प्यास तन-मन की जगी है।।
बेचती भारी लकड़ियाँ,
है नहीं कोई सहारा।
वस्त्र से लज्जा ढँकी बस,
पाँव घुटनों तक उघाड़े।
जा रही निश्चिंत पथ पर,
आ सका कोई न आड़े।।
बाँध आँचल से अबल शिशु,
पी रही दृग नीर खारा।
पक गए हैं कान सुन - सुन,
हम मिटा देंगे गरीबी।
चाभते बादाम पिस्ता,
काजुओं के भोग कीवी।।
ढोल पीटे जा रहे हैं,
जिंदगी की शुष्क धारा।
जिंदगी - से बाल उलझे,
ऐंडरी सिर पर धरी है।
देह काँटे - सी हुई है,
हो रही वह अधमरी है।।
आदमी बेचारगी में,
रात-दिन भीषण कु-कारा।
सोचती है बोझ भारी,
हो मिलेंगे अधिक पैसे।
खा सके भर पेट रोटी,
कर रही नित यत्न ऐसे।।
आयु से लगती अठारह,
चुक गया अस्तित्व सारा।
🪴शुभमस्तु!
28.04.2023◆4.00आ०मा०
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