166/2023
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✍️ शब्दकार ©
👉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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तर्जनी की आँख
देखती रही
अहर्निश
दूसरों की ओर,
देखा नहीं
मुड़कर झलक भर
तनिक भरकर कोर।
दूसरों में दोष दर्शन
तर्जनी तेरी
प्रवृति है ,
पथिक को
रास्ता बताना
प्रकृति है,
बन के मुक्का
एकता से
सुकृति है।
नकार और सकार का
साकार है तू,
निकालने के लिए
पात्र से गाढ़ा जमा घी
सर्व प्रथम
तू ही पड़ती है टेढ़ी,
शेष चारों नहीं आतीं
लौट जातीं,
नहीं देतीं साथ तेरा,
क्योंकि
दोष दर्शन में नहीं
कोई नहीं
सानी घनेरा।
तर्जनी की तर्ज पर
संसार भी
दूसरों के दोष देखे,
डालकर अँगुली
तर्जनी अपनी
छेद को चौड़ा करे,
क्या करे?
छोड़कर प्रकृति अपनी
श्रेष्ठता कैसे वरे!
तर्जनी
बनी यों ही नहीं,
बैठा हुआ है मौन
बेचारा तिलकधारी
अंगुष्ठ तेरी तली,
अंततः तू नर नहीं
जग की जनी,
हे वर्जनी!
हे तर्जनी!!
🪴 शुभमस्तु !
14.04.2023◆6.30आ०मा०
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