142/2023
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✍️व्यंग्यकार ©
✅ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मीत समीक्षा मत करो,करो सदा चितलाय।
मक्खन लीपो प्रेम से,या फिर गाली खाय।।
मंचों की बरसात का मौसम है। साहित्यिक मंचों पर रातों- रात कवि बनने के चक्कर में लोग औऱ लुगाइयाँ,जवान, बालक और बुड्ढे -बुढ़बाइयाँ,बढ़े -बूढ़े ताऊ और ताइयाँ, धोती साड़ियाँ और टाइयाँ अपने प्रेम पत्रों की शाइरी को काव्य का रंग देने की फिराक में फ़िराक गोरखपुरी के नाना और मीराबाई की नानियाँ बनने पर उतारू हैं।यही कारण है कि समीक्षा -गुरुओं की भी अंधी बाढ़ ही आ गई है।चीनी और गुड़ के स्वाद का पता नहीं,परन्तु समीक्षा तो उन्हें करनी ही है।
क्या कीजिए । समीक्षा -गुरुओं की भी बड़ी विवशता है। अब जानें या न जानें ;उनकी मोटी- मोटी डिग्रियों को देखकर या पढ़कर उन्हें समीक्षक के ऊँचे सिंहासन पर पधरवा देते हैं।एडमिन बनने के बाद वे महाकवि तो बन ही जाते हैं, साथ ही आई. ए. एस .औऱ आई.पी.एस. से भी बड़े स्वयम्भू एडमिस्ट्रेटर स्वघोषित हो लेते हैं।कोई भी क्या कर सकता है;क्योंकि इस देश में किसी चीज की कोई आचार संहिता तो है नहीं। और यदि हो भी ,तो भी क्या इस देश का स्वतंत्र नागरिक क्या किसी आचार संहिता का अनुपालन करता हुआ दिखाई देता है? बिना ज्ञान अर्जित किए ज्ञान का बघार देना यहाँ के नागरिकों की खूबी है।जिससे आज तक यहाँ की जनता नहीं ऊबी है। भले ही देश के नेताओं की तरह देश को ले डूबी है।
बात समीक्षकों की योग्यता की हो रही थी। जिस देश में बिना पढ़े लिखे एक कंपाउंडर एम.बी.बी.एस. ; एम.डी. ;डी. एम.को धता बताकर डॉक्टर बना बैठा हो ,उस देश के कवियों , साहित्यकारों और कलमकारों को लिक्खाड़ बनने से भला कौन रोक सकता है? जैसे लिक्खाड़ वैसे ही समीक्षक। यदि आप जानकार हैं औऱ सही समीक्षा करते हैं ,तो आपको गालियों की बैलगाड़ी भरी हुई तैयार मिलेगी।' साला! समीक्षक बनता है!' ' 'समीक्षक की पूँछ ! उसे क्या आता -जाता है?' ; 'इसके बाप दादों ने भी कभी कविता पढ़ी है! या समीक्षा की है!जो हमारी समीक्षा करने चले हैं!' जिसे स्वयं भाषा, विराम चिह्न, व्याकरण ,छंद, शब्द शक्ति, रस,अलंकार, समास, आदि का समुचित बोध न हो,उसका समीक्षा करना ठीक वैसे ही है ,जैसे नौसिखुआ के हाथ में बस का स्टेरिंग पकड़ा दिया गया हो।
एक समीक्षा औऱ होती है,जिसे कोई भी अक्षर बोध धारी बखूबी कर सकता है।उसे सम + इक्षा (समान रूप से देखना) से कोई मतलब नहीं है। उसकी तो बस इच्छा ही इच्छा है। उसकी इच्छा ही समीक्षा है। बानगी देखें:
1.'वाह!वाह !! क्या शब्द शृंगार किया है!कलम ही तोड़कर रख दी आपने तो!'
2.'क्या कहने! आप तो महान हैं! महादेवी हैं! साक्षात सरस्वती की अवतार हैं आप!'
3.'जी चाहता है कि आपकी अंगुलियाँ चूम लूँ, कैसे लिख लेती हैं /लिख लेते हैं आप इतना सुंदर, मनोरम और शानदार! '
4.'इतनी सुंदर रचना को पढ़ कर जी चाहता है कि यदि सामने होते तो आपके चरण छू लेता।'
5.'आपने तो कवि कालिदास और केशव को भी पीछे छोड़ दिया। जितना कहा जाए कम ही है।'
आदि आदि।
बोरी भर - भर सम्मान पत्र बटोरने की होड़ में बाजी मार चुके कवियों औऱ कलमकारों की रचना बता देती है कि वे कितने पानी में हैं। बड़े- बड़े प्रोफ़ेसर, प्राचार्य, योगाचार्य, अधिकारी और उच्च पदस्थ जन और जनियाँ गाड़ी भर सम्मान पत्र प्रदर्शित कर बताना चाहते हैं, कि उन्होंने कबीर ,सूर और तुलसी को भी पीछे छोड़ दिया है।परंतु उनकी एक ही रचना की भाव योजना ,शब्द रचना, विरामादि का सदुपयोग, वर्तनी उन्हें आईना दिखा देता है। उन्हें एक नहीं अनेक बार बताने समझाने पर भी ऐसा लगता है कि समीक्षक- शिकारी के बाण पाहन की शिला से लौट- लौट कर बाहर आ रहे हैं और शिकारी स्वयं स्व बाणों से घायल हो रहा है।
इस देश में समीक्षक होने के लिए एक श्रेष्ठ साहित्यकार होना आवश्यक नहीं है। कोई भी अप्रशिक्षित चालक सीट पर बैठकर पाइलट बन जाता है। कवियों को एकमात्र प्रशंसा ही चाहिए।उनकी दृष्टि में वही समीक्षक उत्तम है ,जो उनकी पीठ थपथपाए।उनकी सराहना में गीत गाए और अधकचरी रचना को उत्तम बताए।कवि बनने का एक नया ट्रेंड औऱ आ गया है कि मुक्त काव्य के नाम पर कुछ भी ऊँटपटांग लिख डालो, हो गई कविता। न छंद, न बंध, न तुक न तुकांत। बस नॉनस्टॉप चलने का रचनांत। कोरोना- काल ने अनेक ऐसे कवि -केंचुएं ( केंचुई भी) पैदा कर डाले।इन कवि - केंचुओं /कैंचियों ने अच्छे -अच्छे कवियों की मिट्टी पलीद कर दी। वे न जानें , न किसी की मानें।बकते रहो समीक्षक ।वे तो कचरे में शब्द - बुहार कूड़ावत फेंक कर ही खुश हो लेते हैं । 'प्रमाण पत्र-लूटो- प्रतियोगिता' में समीक्षकों की आफ़त कर देते हैं।रचना की गुणवत्ता पर उनका कोई ध्यान नहीं। रात-दिन एक कर उठा लेना है सकल मही। वे जो भी लिख दें,बस वही सही।जमा देना है मंच -मष्तिष्क का दही।किंतु उन्हें रहना है वहीं के वहीं।
हमारे यहाँ एक प्रसिद्घि- लब्ध कहावत है कि 'सारी कुत्तियाँ जब इंग्लैंड चली जाएँगी ,तो फिर भिर कौन चाटेगा? बात कुनैन- सी है, कानों में शहद नहीं घोलती।जहाँ पात्रता न हो, वहाँ पत्तलों पर सिर फोड़ने का कोई औचित्य नहीं है।इसलिए दीवाल पर नाप -चिह्न लगाकर अपने कद का मापन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। कवि हो या समीक्षक ; अपने -अपने गरेबान में झाँकें ,तब औरों से पहले अपने को ही आँकें।तभी तो मिलेगी सही खिड़की से अपनी झाँकी।बिना गुणवत्ता के आएगी याद माँ की।माली है तो काट -छाँट तो करेगा ही।अनावश्यक टहनियों को अलग धरेगा ही।क्यों न आप स्वयं माली बन जाएँ औऱ अपने काव्योद्यान की क्यारी को सुगंध से महकाएं।
🪴 शुभमस्तु !
02.04.2023◆8.30 आ.मा.
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