शनिवार, 8 अप्रैल 2023

ग़ज़ल

 155/2023


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✍️ शब्दकार ©

🩷  डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नज़रें         चिलमन -  फाड़ तुम्हारी।

पार     करें         हर    आड़ तुम्हारी।।


महल    किलों     की  क्या थी  हस्ती,

झेली       नहीं       पछाड़    तुम्हारी।


चंचल      चितवन      कैद   न   होती,

ऊँची         आँखें       ताड़    तुम्हारी।


रहे              टापते        पहरे  वाले,

ऐसी           साड़म   -  साड़ तुम्हारी।


किसके     कानों      में    दम  इतना,

सह          पाएगा       झाड़  तुम्हारी।


जहाँ     धधकती     आग   रात - दिन,

देह       बनी     है       भाड़  तुम्हारी।


'शुभम्'      चलन    की  चाल अनौखी,

जिनगी         बनी       कबाड़ तुम्हारी।


🪴शुभमस्तु !


08.04.2023◆3.45प०मा०


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