155/2023
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✍️ शब्दकार ©
🩷 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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नज़रें चिलमन - फाड़ तुम्हारी।
पार करें हर आड़ तुम्हारी।।
महल किलों की क्या थी हस्ती,
झेली नहीं पछाड़ तुम्हारी।
चंचल चितवन कैद न होती,
ऊँची आँखें ताड़ तुम्हारी।
रहे टापते पहरे वाले,
ऐसी साड़म - साड़ तुम्हारी।
किसके कानों में दम इतना,
सह पाएगा झाड़ तुम्हारी।
जहाँ धधकती आग रात - दिन,
देह बनी है भाड़ तुम्हारी।
'शुभम्' चलन की चाल अनौखी,
जिनगी बनी कबाड़ तुम्हारी।
🪴शुभमस्तु !
08.04.2023◆3.45प०मा०
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