167/2023
[ व्यंग्य ]
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✍️ व्यंग्यकार ©
🪭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आम जन मानस में कही जाने वाली एक कहावत बहुत ही लोक प्रचलित है कि आजकल दो ही चीजों की कीमत आसमान छूती जा रही है।पहली जमीन औऱ दूसरे हैं कमीन।इस कहावत में कुछ झूठ भी नहीं है।यदि आप इस बात की सत्यता में विश्वास नहीं करते हों तो इसे सौ फीसदी सत्य प्रमाणित करना भी कोई चील के घोंसले में मांस खोजने के समान कठिन नहीं है।
अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत है कि जिस चीज की कमी हो जाती है ,उसकी माँग बढ़ जाती है। अब जब माँग बढ़ेगी तो सामग्री में कमी आएगी और उत्पादन भी बढ़ाना पड़ेगा ।माँग बढ़ने से वस्तु मँहगी भी होने लगेगी। अर्थशास्त्र का यह लोकप्रिय सिद्धांत समाज,शासन प्रशासन औऱ सरकारों पर भी बख़ूबी लागू होने लगा है।
ऐसा लगता है कि भले ,भद्र या सच्चे लोगों की कोई कमी नहीं है। इसलिए ऐसे भद्र पुरुषों (महिलाएँ भी) की भरमार का परिणाम है कि उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। अधिक उत्पादन ,माल सस्ता। कौन पूछता है भद्र पुरुषों को ।कौड़ी के मोल ,मिल जाते हैं अनतोल।अब तो हत्यारों, डकैतों, बलात्कारियों,दूसरों की संपत्ति छीनने वालों,जमीन के बदले नौकरी देने वालों,आतंकियों, उग्रवादियों, चरित्रहीनों, नौकरी दाताओं,(केवल वे लोग ही चरित्र हीन नहीं हैं, जो जार हैं, परस्त्रीगामी हैं ।अब तो गबनी,रिश्वत खोर, बैंक लुटेरे, देश लुटेरे,राहजन आदि सभी चरित्रहीन ही हैं।) की ही सर्वाधिक माँग है।उन्हें ढूँढ़ने के लिए जंगल, जेलों ,होटलों, कोठियों आदि की खाक छाननी पड़ती है।अब दस, बीस, पचास हजार में भी नहीं मिलते । अब तो उनके ऊपर एक ,दो ,पाँच लाख या इससे भी ऊपर इनाम रखा जाता है। उन्हें खोजने के लिए हजारों लीटर डीजल ,पेट्रोल फूँका जाता है।इनाम स्वरूप उनके 'शरणदाताओं'को 'सम्मानित' किया जाता है।
नई तथा अत्याधुनिक परिभाषा के अनुसार जिनके पास धन- दौलत, कार ,कंचन ,कामिनी की कमी न हो ;उन्हें 'कमीन'=[कमी+न] की उपाधि से उपकृत किया जाने का नियम है।और वे किए भी जा रहे हैं,उन्हें इस असार संसार से मुक्ति प्रदान करते हुए हूरों के लोक में पद स्थानित कर दिया जाता है।इस सबका ध्यान हमारे शासन - प्रशासन को विशेष रूप से रखना पड़ता है।इससे उनका पवित्र दायित्व - भार भी कई गुणा बढ़ जाता है।
किसी समाजसेवी, देशभक्त ,कवि ,साहित्यकार, वैज्ञानिक,संगीतकार,गायक, अभिनेता,सुयोग्य प्रशासक या राजनेता का उचित सम्मान हो या न हो,परन्तु इन तथाकथित 'कमीन' वर्ग की 'ख़ातिरदारी' पूरे जोश -ओ -खरोश, लाव -लश्कर और प्रचार -प्रसार के साथ की जाती है। इससे कम मूल्य पर समझौता नहीं होता। रक्तबीजों की तरह बढ़ते हुए ये अभद्र जन/जनी इतने सुयोग्य समझे जाने लगे हैं कि बिना किसी प्रचार- प्रसार वे जेलों की रोटियाँ तोड़ते हुए शान से विधायक और सांसद चुन लिए जाते हैं। धन्य हैं हमारे समाज औऱ देश के मतदाता जो बिना चरण चुम्बन कराए ही उन्हें विधान सभा या लोकसभा का माननीय बनाने में देर नहीं करते। इससे भी ज्यादा बधाई के पात्र हमारे वे राजनेता और राजनीतिक दल हैं ;जिनके संरक्षण में वे पलते बढ़ते और ऊपर तक चढ़ते हैं। ऐसे दलों के दलदल में राजनीति का लोटस नहीं खिलेगा तो क्या धतूरा महकेगा? यत्र तत्र सर्वत्र बढ़ते हुए गिद्घ, चीलों की समृद्धि का रहस्य अब समझ में आ रहा है। उन्हें भी व्यक्ति, समाज और देश से क्या लेना देना , बस उनकी कुर्सी के रक्षक (कृपया राक्षस न कहें) जिंदाबाद रहें। तभी तो एक गिद्ध के जाने पर 'भाईचारे' का मर्सिया शुरू हो जाता है। वे सच्चे आँसुओं से जार-जार बिलखने लगते हैं।किसी को अन्याय दिखता है तो किसी को जाँच आवश्यकता महसूस होने लगती है।वे भूल जाते हैं कि हमारी संस्कृति इतनी अशक्त और लाचार नहीं है। वह 'शठे शाठयम समाचरेत 'का सिद्धान्त भी भूली नहीं है।काँटे से काँटे को निकालना भी उसे अच्छी तरह आता है। युग के अनुसार वह कांटा इतना बड़ा भी हो जा सकता है कि उसे किसी 'कल' में लगाकर कलमा पढ़ना पड़े। कलयुग है न!कल के युग में भी कल की कलाकारी नहीं चली तो क्या त्रेता या द्वापर युग में चलेगी? ये कुछ कम नहीं है:
जैसे में तैसौ मिले,मिले नीच में नीच। पानी में पानी मिले, मिले कीच में कीच।।
🪴शुभमस्तु !
14.04.2023◆4.45प०मा०
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