164/2023
[धूप,कपोल,आखेट, प्रतिदान,निकुंज]
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
☘️ सब में एक ☘️
धूप- छाँव उनको कहाँ, नित्य बहाते स्वेद।
उदर भरें श्रम के बिना,करते वे जन- भेद।।
धूप चिलचिलाती रही, कर्मवीर निर्बाध।
रहा साधना लीन जो,पूर्ण करे निज साध।।
पाटल जैसे लाल हैं, अँगना युगल कपोल।
चहके सहज सुगंध से,कोकिल जैसे बोल।।
गोरे सुमन कपोल की,सुषमा सौम्य असीम।
तृप्त नयन हों देखकर,कटु रस त्यागे नीम।।
दृष्टिबाण संधान कर, करती है आखेट।
गजगामिनि-सी कामिनी,उघड़े त्रिबली पेट।।
पता नहीं कब चल गए,सजनी के दो तीर।
घायल है आखेट से,सबल युवा रणवीर।।
प्रेम न सच्चा चाहता, बदले में प्रतिदान।
देना ही संतोष का, प्रतिफल परम महान।।
वांछा यदि प्रतिदान की,उचित नहीं ये भाव।
देकर जो भूला रहे, हरे न होंगे घाव।।
बातें करें निकुंज में, बैठे राधे - श्याम।
दूर गईं गायें सभी, ढूँढ़ें मनसुखराम।।
छाई है मधुमास में,हिलती घनी निकुंज।
करते हैं विश्राम दो,प्रेमी परिमल - पुंज।।
☘️ एक में सब ☘️
पड़ती धूप कपोल पर,
मिला प्रणय- प्रतिदान।
नव निकुंज आखेट का,
नहीं उचित संधान।।
🪴 शुभमस्तु !
11.04.2023◆11.15प०मा०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें