247/2023
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
● शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
ग्रीष्म जेठ आषाढ़, हरियाली अच्छी लगे।
टप -टप बूँद प्रगाढ़, स्वेद बरसता देह से।।
रवि बरसाए तेज, मौन धरा प्यासी पड़ी।
तप को रखो सहेज,ग्रीष्म कहे दो माह को।।
बैठे जन,खग,ढोर, वट की शीतल छाँव में।
अकुलाए हैं मोर,ग्रीष्म ताप यौवन चढ़ा।।
मेघ नहीं आकाश, रातें लंबी दिवस लघु।
मिले सलिल की आश,कैसे तपती ग्रीष्म में।।
जेठ ग्रीष्म की धूप,छन-छन छानी से छने।
सूखे हैं जल कूप, पानी भी मिलता नहीं।।
ग्रीष्म-भोर में मंत्र, पीपल-पल्लव बाँचते।
कोई नहीं स्वतंत्र, उछल गिलहरी बोलती।।
करता ग्रीष्म प्रपंच,आतप जेठ अषाढ़ का।
सजा हुआ नभ-मंच,आँधी पानी धुंध से।।
जाती थी तिय राह,अवगुंठन को छोड़कर।
ग्रीष्म बदलता चाह, लाज लगी है जेठ की।।
खूब लगाती लोट, तप्त रेत में जा नहा।
ग्रीष्म शिंशुपा ओट,गौरैया चिचिया रही।।
मिले नहीं सत ज्ञान,बिना साधना में तपे।
जल -घन का संधान,ग्रीष्म तपे ये साधना।।
निर्भर हैं हे मीत, ऋतुएँ पाँचों ग्रीष्म पर।
मधु ,पावस संगीत,शरद,शिशिर,हेमंत सब।।
●शुभमस्तु !
08.06.2023◆10.00आ०मा०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें