बुधवार, 7 जून 2023

पनारी हूँ मैं पानी की ● [गीतिका ]

 244/2023


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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पनारी हूँ मैं पानी की पिपासित मैं कहाँ जाऊँ।

गरजते मेघ खाली हैं बुलाने मैं  कहाँ   जाऊँ।।


तड़पती विरहिणी जैसे जमीं प्यासी पड़ी नीचे,

यहाँ कोकिल बुलाती है सवाली मैं कहाँ जाऊँ।


न चलने को कदम मेरे नहीं पर जो  उडूं ऊपर,

पड़ी  ही  मैं रहूँ यों ही बताएँ मैं  कहाँ जाऊँ।


भली लगती वही सरिता बहे कलरव करे भारी,

भरे जो रेत  आँखों में बचाने मैं  कहाँ  जाऊँ।


न देखो रात या दिन भी न फागुन जेठ की गर्मी

बरस जाते यकायक ही नहाने मैं कहाँ जाऊँ।


मुझे क्या धूप छाया से मुझे तो  चाहिए पानी,

समंदर भी न काफी है जताने मैं कहाँ  जाऊँ।


'शुभम्' कैसी पनारी हूँ गए हैं सूख   आँसू भी,

नहीं बहती सलिल धारा रिझाने मैं कहाँ जाऊँ।


● शुभमस्तु !


07.06.2023◆12.15प०मा०

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