261/2023
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© व्यंग्यकार ●
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आदम और हौवा की संतान ऐ आदमी !आभार मान अपनी उन सभी आँखों का,जो प्रकृति ने तुझे प्रदान कीं।यह मत सोच कि तेरी ये दो ही आँखें हैं ,जो चर्म - चक्षु कहलाती हैं।इतना ही नहीं कुछ अदृश्य आँखें हैं ,जो इन दोनों से भी गहरे और गहरे में देख पाती हैं।वे हैं हिए की आँखें ! किंचित झुक कर नीचे तो झाँकें। नहीं कहा जा सकता कि कितनी हैं हिए की आँखें:दो या दो दर्जन।किन्तु बाहर की दृश्य दो की तरह उन्हें भी दो ही मान लेते हैं। इस 'मान' की भी क्या कुछ कम मान्यता है! इस मानने से ही हमारा महान विज्ञान, गणित,सहित्य,काव्य आदि भरा पड़ा हुआ है।एक तीसरी अदृश्य आँख और भी है, जो सबके प्रशस्त ललाट मध्य विराजमान है।यह बात अलग है कि वह कभी-कभी ही खुलती है,औऱ जब खुलती है तो कुछ विशेष ही कर गुजरती है।जैसे भगवान शंकर के तीसरे नेत्र का चमत्कार तो सुना ही होगा कि उन्होंने सशरीर कामदेव को भी अपने तृतीय नेत्र की अग्नि से भस्मसात कर डाला था।
अब प्रश्न ये है कि आँखों का आभार क्यों माना जाए?अब तक तो अपनी आँखों की संख्या औऱ क्षमता की बात हुई।ये आँखें ही हैं ,जो न स्वयं को औऱ न किसी और मानव(नर एवं नारी) को अपनी मूल औऱ प्राकृतिक अवस्था में देख पातीं!दाद दीजिए इनकी संयुक्त सोच को कि इन्होंने कुछ नया सोचा कि अपने को उसके असली रूप में नहीं देख पाया। इसलिए उसको ढँकने के लिए आवरण का विचार लाया। विचार लाया ही नहीं,वरन पहले तो पेड़ों के चौड़े पल्लव दल औऱ उनकी छाल से अपनी देह और खाल को ढंकवाया। इससे उसे एक नहीं अनेक लाभों का लाभ मिल पाया।उसने देह को ठंड, धूप, लू,ताप, वर्षा आदि के प्रचण्ड प्रहार से बचाया।उसके बाद उसे सभ्यता का आवरण बताया। जी हाँ, सभ्यता का आवरण।
कोई किसी कुत्ते,बिल्ली,शूकर ,गधे ,घोड़े,गाय या भैंस,तीतर, मोर,बटेर, कोयल या कौवा से नहीं कहता कि नंगा घूम रहा है।किंतु इसी प्रकार यदि कोई स्त्री या पुरुष प्राकृतिक अवस्था में दिख जाए तो यही कहा जायेगा कि वह कोई पागल होगा या परम् हंस,दिगम्बरी या भिखारी।क्योंकि सभ्यता के कृत्रिम आवरण की अपेक्षा मनुष्य मात्र से ही की जा सकती है;किसी मनुष्येतर जंतु से नहीं। ये कृत्रिमता औऱ बनावटीपन, ये छद्मता आदि सभी रचनाएँ मनुष्य के ही हिस्से में आईं हैं। वह अपने को स्व - रूप में न दिखना चाहता है औऱ न ही देखना पसंद करता है।
सभ्यता की वर्तमान बाढ़ ने उसे अपनी प्राकृतिक अवस्था में लौटने के लिए प्रेरित किया है।इसलिए देह के 20 प्रतिशत हिस्सों को छोड़कर शेष सबकी नुमाइश करना ही उसकी नव सभ्यता की पहचान बन गई है। इस क्षेत्र में नारियों ने रिकॉर्ड ही तोड़ दिए हैं औऱ निरंतर तोड़े भी जा रहे हैं।पुरुष वर्ग अभी बहुत पिछड़ा हुआ है। पर क्या करे ,उसे भी तो अत्याधुनिक कहलाने में अपने झंडे फहराने हैं।अब फटी हुई जींस(फटी न हो ,तो जबरन फाड़ डाली गई),बैगी,लैगी, जांघ, वक्ष और नितम्ब दिखाऊ रूमाल - छाप आवरण, अपने चरम स्तर पर हैं। सभ्यता कितनी पारदर्शी होती जा रही है! यह किसी से गोपनीय नहीं है! सब खेल खुल्लम खुल्ला। जैसा मानुस वैसा कुत्ती का पिल्ला।
वर्तमान पारदर्शी सभ्यता के भविष्य पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि मनुष्य आदिम युग की ओर लौट रहा है।(सुना है इतिहास अपने को दोहराता है। ) उसे अपने नंगपने से ही अधिक संतुष्टि है।एक संकट की आशंका है कि फिर बेचारे दिगम्बरी जैन मुनियों की पहचान कैसे होगी। हो सकता है कि वे सबसे अलग दिखने के लिए कपड़े भी पहनने लगें।आज गधे,घोड़ों, कूकर,शूकरों आदि से चल रही प्रतियोगिता का हश्र यही होने वाला है। जब सर्वत्र पानी ही सूख रहा है तो भला आँखों में ही क्यों बचेगा? वहाँ सूखा नहीं ; मर ही चुका है। इसलिए अब तुम्हारी आँखों को सोचने की आवश्यकता समाप्त प्रायः होती जा रही है।सभ्यता की परिभाषा ही बदल दी है आज के आदमी -औरत ने। अब वे चर्म - चक्षु नहीं, चमड़ी की खिड़कियाँ हैं। जो सोचने का काम छोड़कर दूसरों के बैड रूम और बाथ रूम में झाँकने में तल्लीन हैं।अब आँखों में दिमाग नहीं रहता। किसी की एड़ी में तो किसी के घुटनों में बसता है।औऱ आदमी बेहिसाब संगिनी किंवा पर संगिनी के संग - संग खिलखिलाकर हँसता है।वर्तमान सभ्यता की यही तो समरसता है।
●शुभमस्तु !
16.06.2023◆11.45आ०मा०
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