236/2023
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
●शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
पथ के सहयात्री
सभी एक -से
नहीं होते,
कुछ अच्छे,
कुछ नहीं,
कुछ मरुस्थल जैसे
तप्त करते हुए,
कुछ तटस्थ
जैसे हों ही नहीं,
कुछ अमराई जैसे
छायादार,
करते हुए उपकार।
आदमी के प्रकार
जैसे खरबूजे की बहार,
क्या पता कौन
क्या निकल जाए!
कोई सहचार से
आजीवन विस्मृत
नहीं हो पाए!
और कोई
बबूल के शल्यवत
चुभ -चुभ जाए।
आवश्यक नहीं
नर देह में,
मानव ही हो,
कसे से सोना
और बसे से इंसान
पहचाना जाता है,
ज्यों आदमी
आदमी के
निकट आता है,
अपनी सुगंध
किंवा दुर्गंध से
प्रभावित कर जाता है।
आदमी की
खाल के नीचे,
समझ मत लेना
यह आँखें मींचे,
कि वह
आदमी ही होगा,
पता तभी लगना है
जब उसका उतरेगा
अपना बाहरी चोगा,
अन्यथा छद्म ही होगा।
आओ 'शुभम्'
हम आदमी को जानें,
उसके स्वार्थ से
उसे पहचानें,
अपने को परहितार्थ
मानव - देह में
मानव तो बना लें,
स्वार्थों को परे रख
प्रेम और सद्भाव से
सबको रिझा लें।
● शुभमस्तु !
02.06.2023◆6.00आ०मा०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें