बुधवार, 14 जून 2023

दोपहर ● [ दोहा ]

 258/2023

        

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भोर गँवाया खेल में,फिर रत काम  ललाम।

बिता दोपहर वाम में,झटपट  आई  शाम।।

जेठ  दोपहर दिन तपें,नहीं रात   में     चैन।

जब  मच्छर डंसने लगें,लगें न पल को  नैन।।


आठ पहर चौंसठ घड़ी,नहीं विपल आराम।

गया दोपहर ऐंठ में,लिया न हरि का  नाम।।

कौन दोपहर देखता,सुबह न निशि या शाम।

संतति जन्में शुभ्र क्यों,नर- नारी  रत  काम।।


कर्मशील जो नर नहीं,क्या जीवन का अर्थ!

भोर दोपहर अंधता,कर देती  सब   व्यर्थ।।

रखे  हाथ  पर  हाथ तू, बैठा क्यों   बेकाम?

बिता दोपहर द्यूत में,चाट रहा  नर   चाम।।


खेल भोर के और हैं,और शाम   के  औऱ।

लगा दोपहर नाच में,झड़े आम  का  बौर।।

आँधी  लू  तपती  धरा,जेठ मास   के  खेल।

तपे दोपहर  आग-सा,बहे देह   से   तेल।।


कुंडी  खटकी  द्वार पर,खोले यदि  न  कपाट।

लौटे वापस दोपहर,नियति न    देखे   बाट।।

भोर दोपहर साँझ निशि,सबके अपने लक्ष्य।

पल-पल को पहचानिए,भखे न भक्ष्य-अभक्ष्य।


संध्या  से   पहले  करे, जीवन के   उपचार।

सुखद दोपहर  जो चले,उसका   बेड़ा पार।।


● शुभमस्तु !


14.06.2023◆7.00आ०मा०

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