262/2023
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●©शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
ऊबड़ - खाबड़ चेहरा, टेढ़ी - मेड़ी देह।
मेरी प्यारी आत्मा, रहती है इस गेह ।।
रहती है इस देह , बने हैं नौ दरवाजे।
ठोस गैस अवलेह, द्रवित रस ताजे - ताजे।।
'शुभम्'कहाँ पर वास, नहीं कर हाबड़-ताबड़।
आया जी को रास, चेहरा ऊबड़ - खाबड़।।
-2-
दर्पण के आगे खड़ी,मन में अटल विचार।
सबसे सुंदर नारि मैं, रची धरा करतार।।
रची धरा करतार, अप्सरा हूँ मैं न्यारी।
भला और है कौन,मोहिनी मम सम नारी।।
'शुभं' पुरुष को बाँध,करूँ क्यों सहज समर्पण।
हाव-भाव अनिवार्य,सोचती सम्मुख दर्पण।।
-3-
टेड़ी चलता चाल जो,अपने ही घर - द्वार।
कौन उसे समझा सके, पर्वत सरिता खार।।
पर्वत सरिता खार , नारि-नर हैं ही ऐसे।
चलते उत्तर ओर, बताते दक्षिण वैसे।।
'शुभम्' नहीं सिर बीच,बुद्धि घुटने या एड़ी।
जैसे नागिन - नाग, चाल मानव की टेड़ी।।
-4-
ऊपर चिपका आवरण,उसके नीचे खाल।
अंतर का जाना नहीं, कैसा तेरा हाल।।
कैसा तेरा हाल, नहीं साहस भी इतना।
दिखती देह पवित्र, शीश धड़ टाँगें टखना।।
'शुभम्' दिखाता भाव,जंतु सब जैसे भूपर।
भरे अहं के घाव, हजारों भीतर ऊपर।।
-5-
आलू -गोभी की तरह, हुए मनुज के भाव।
समझे औरों को नहीं, भरा रहे उर ताव।।
भरा रहे उर ताव,स्वयं को कर्ता जाना।
जलता हुआ अलाव, बिखरता ताना-बाना।।
'शुभम्' फिसलता नित्य,मुष्टिका से ज्यों बालू।
बिना मोल का झोल,सड़क पर लुढ़का आलू।।
●शुभमस्तु !
17.06.2023◆2.00प०मा०
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