278/2023
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●©शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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कजरी नहीं मल्हार, पावस की ऋतु आ गई।
लिखा न शुभद लिलार, अमराई सूनी पड़ी।।
सुने न दादुर - गीत, वीर बहूटी केंचुए।
बतलाओ हे मीत, पावस क्यों बेरंग है।।
बरसे जलद फुहार,सावन- भादों माह में।
ऋतु- रानी का प्यार, पावस है मनभावनी।।
पावस का उपहार,बिजली कड़की मेघ में।
दंपति सह परिवार,कृषक सभी हर्षित बड़े।।
हरी - हरी है घास, खेत, बाग, वन झूमते।
मिटी धरा की प्यास, पावस में पशु कूदते।।
भरे नदी तालाब , पावस के घन झूमते।
गदला बहता आब,कल-कल नद-नाले करें।।
भीगा -भीगा भोर,पावस की ऋतु आ गई।
लेता हिया हिलोर,नर-नारी चहके सभी।।
बरसी पावस मीत,गड़ -गड़ गरजे मेघ दल।
सुरसरि सम संगीत,मन मेरा गाने लगा।।
तरु से लिपटी बेल,देख -देख मन झूमता।
पावस का है खेल,विरहिन के उर आग है।।
जुगनू चमके रात, लालटेन अपनी लिए।
दिखा न एक प्रभात,पावस की अपनी छटा।
हरे - हरे शैवाल, पावस में उगने लगे।
धूसर कोई लाल, घूर कुकुरमुत्ते सजे।।
●शुभमस्तु !
29.06.2023◆11.30आ०मा०
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