277/2023
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
●© शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
हरी चूड़ियाँ
खन - खन बोलें
अँगना गेह रसोई।
गुन -गुन गाती
गीत सुहागन
मस्तक -बिंदिया चुप-चुप।
खड़ी ओट में
पिया निहारे
सट कपाट से छुप -छुप।।
कभी उठाती
पलकें दोनों
रस- घट युगल डुबोई।
जब गाती हैं
गीत चूड़ियाँ
प्रियता बरसे सज - धज।
आपस में
कुछ बतियाती -सी
चाल थिरकती ज्यों गज।।
मुखर निमंत्रण
देती चूड़ी
औऱ न समझे कोई।
मौन हो गईं
भरी कलाई
आलिंगन में जाकर।
प्रिया खो गई
तन - मन अपने
नेहामृत को पाकर।।
है निशंक वह
सहज समर्पण
अंतर देह भिगोई।
शब्द मौन हैं
साँसें गाएँ
तेज - तेज नव सरगम।
रुके हुए पल
कब तक रुकते
अंग- अंग है हर नम।।
शृंगारित हैं
सभी सृजन क्षण
एक प्राण तन दोई।
●शुभमस्तु !.
29.06.2023◆10.30 आ०मा०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें