280/2023
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● ©शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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अभिनय में ही
जीवन बीता,
बचपन मात्र
यथार्थ मनुज का,
शेष रहा सब रीता।
जो जैसा था
दिखा न पाया,
पहन आवरण
मास्क लगाया,
फिर भी छिपा न
सुमन कली का।
यौवन, प्रौढ़,
जरा सब नकली,
रूप गुप्त कर
नर ने असली,
किया नित्य ही
ढोंग बली का।
क्या नारी - नर
ढोंगी सारे,
जितना छिपता
धीमान बेचारे!
खाने को
घी दूध मलीदा।
'शुभम्' चलें
उस ओर किनारे,
जहाँ न नाटक
नायक न्यारे,
खुला खेल
रघुवर संग सीता।
●शुभमस्तु !
29.06.2023◆9.45प०मा०
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