245/2023
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● शब्दकार ©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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गुड़ खाया मैंने रुचिर, जानूँगा मैं स्वाद।
अनुभव शब्दों में नहीं,कर सकता भर नाद।।
रूप रंग आकार से,मानव की पहचान।
बिना गहन अनुभव लिए,नहीं हो सके ज्ञान।।
अनुभव करने के लिए,संग बिताओ काल।
उलझा मनुज चरित्र ये,ज्यों मकड़ी का जाल।।
नीचे छत के एक ही, घिर दीवारें चार।
अनुभव पूरा हो नहीं, यद्यपि सँग नर - नार।।
बचपन यौवन के चढ़ा,मानव बहु सोपान।
अनुभव का भंडार है,जर्जर देह मकान।।
अनुभव मिलता कर्म से,बिना करे सब व्यर्थ।
रखे हाथ पर हाथ तू,बैठा क्यों क्या अर्थ??
चलता है जो राह में, अनुभव मिलें अनेक।
कभी धूप है छाँव भी,खोना नहीं विवेक।।
देख विफलता अन्य की,ले अनुभव धीमान।
स्वयं गिरे सीखे नहीं, उसे मूढ़ मति जान।।
नित अनुभव की आँच में,तपता जो नर मीत।
चमके कंचन-सा वही, गुंजित यश के गीत।।
केवल पढ़ने से नहीं,मिलता अनुभव श्रेष्ठ।
कर्मक्षेत्र में कूदकर, बनता है नर ज्येष्ठ।।
अनुभव सित व्यवदान से, बनता'शुभं'कबीर।
सिल पर रज्जू से बने,गहरी अमिट लकीर।।
●शुभमस्तु !
07.06.2023◆1.00प०मा०
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