255/2023
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● ©शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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अमृत - कलश चाहते सारे।
देव, दनुज, मानव बेचारे।।
नहीं चाह से अमृत मिलता।
सुमन स्वेदश्रम से ही खिलता।।
अमृत-कलश देह-श्रम लाता।
शुचि विवेक से मानव पाता।।
जो आया उसको है जाना।
छद्म अमरता से क्या पाना??
कर्म भाग्य का है निर्माता।
यों ही भाग्य न देता दाता।।
स्वेद -बिंदु से सींचें जीवन।
मिले अमरता का सुंदर धन।।
छप्पर फाड़ नहीं धन मिलता।
दिखा न मन की तू चंचलता।।
अमृत - कलश वही नर पाए।
श्रमज वारि जो धरणि बहाए।।
मन-मोदक सपने में खाए।
बार -बार वह नर पछताए।।
परजीवी परधन की चाहत।
करती है तन मन को आहत।।
अमृत-कलश सहज क्यों पाए!
छाले पड़ें बुद्धि तप जाए।।
मानव-जीवन कठिन कहानी।
नित्य नई है नहीं पुरानी।।
'शुभम्' कलश अमृत का पाया।
माँ वाणी पद शीश झुकाया।।
परमानंद मातु की सेवा।
देती है अमृत भर मेवा।।
● शुभमस्तु !
12.06.2023◆8.45आ.मा.
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