शनिवार, 8 जुलाई 2023

लकीर के फ़कीर ● [ व्यंग्य ]

 295/2023

 

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© व्यंग्यकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कोई कुछ भी कहे।ज्ञान - अज्ञान की किसी भी धारा में बहे।परंतु अपन तो यही कहेंगे कि हम तो जिस लकीर को एक बार पकड़ लेते हैं,उस पर मरते दम तक चलना नहीं छोड़ते।चले आ रहे उसूलों से मुख नहीं मोड़ते।बनी हुई परिपाटी को कभी नहीं तोड़ते।अब चाहे आसमान के बजाय जमीन से बरसात होने लगे।बच्चे नीचे से नहीं ऊपर से पैदा हों; उगने लगें।हम भला क्यों अपने रास्ते से बिदकने लगे। बस , एक बार जो लकीर बना दी गई ; बस वही हमारी एक नेक परमानेंट लकीर है।यही तो हमारी तकदीर है।इसी बात के तो हम अमीर हैं। 

 अब चाहे कोई हमें दकियानूस कहे! अथवा दरिया के बहाव के संग मुर्दा बहे।पर हम तो तिल भर भी न इधर से उधर को डिगे।बस एक ही पक्की लकीर के हमसफ़र ही रहे।पता है इससे हमें बहुत बड़े- बड़े फायदे ही मिले।न सोचने की जरूरत न समझने की दरकार।यूँ ही चलती रहती है अपनी सरकार।पूरी दुनिया से अलग ही विधान।सभी के लिए एक ही विहान।भले ही हो वह टीचर,फटीचर, इंजीनियर, भिखारी या किसान।एक ही संगीत एक ही तान। 

  वैसे लकीर का फकीर होने में हमें कोई घाटा नहीं है।आँखों पर पट्टी बँधी रहे और हम बराबर अपने रास्ते पर चलते रहें। चलते रहें।चलते ही रहते हैं। कोई भले ही हमें कोल्हू का बैल ही क्यों न कहे!अरे !कहे तो कहता रहे। सैकड़ों वर्षों से हम यों ही बच्चे पैदा करते रहे और आज भी उसी गति से करते चले आ रहे हैं।कुछ लोगों की दृष्टि में हम शूकर कूकरी के प्रतियोगी बने हुए स्व वंश की बढ़वार करते हैं, तो उनकी इस बात से भी हमें फ़र्क क्या पड़ने वाला है! यदि किसी को लगता है ज़्यादा बुरा , तो खा ले न दो - चार ज्यादा निवाला है।सोच - सोच कर क्यों निकला जाता तुम्हारा यूँ दिवाला है! यदि तुम्हारी जुबान में पड़ा हुआ कोई छाला है, तो खूब फोड़ो और हमारे विरोधियों से नाता जोड़ो। कर क्या लोगे भला।होनी भी तो चाहिए हमारी जैसी कला! किसी में हिम्मत है जो हमारी नुक्ताचीनी करने चला!

  हमारे अपने हाथ-पाँव। अपनी ही तरह के नए दाँव।हमारे अपनों की बड़ी घनी छाँव।कोई क्यों जी करे वृथा काँव -काँव? हमारे अपने शहर बस्तियाँ हमारे बसे हुए गाँव।है हमें अपने हाथ पैरों और अंगों का सहारा। भला कोई क्या बिगाड़ लेगा हमारा।हमारी अपनी अलग ही पहचान है।यहाँ भी और ऊपर भी हमारी अलग ही शान है।किसी ने हमें गिजाई कहा किसी ने केंचुआ।हमने इधर से सुना जैसे कुछ नहीं हुआ।चले हैं बनने बड़ी सोहणी बुआ।अपनी तो बड़ी ही ताकतवर है ऊपर वाले की दुआ।एक नहीं अनेक को चुआते हर साल, एक क्या हर बार अनेक चुआ! 


  सुना ही होगा : जिसकी लाठी उसकी भैंस।जिसमें ज्यादा ताकत और हथियारों से लैस।भरा ही रहता है उसमें हमेशा तैश।अपन तो इसी उसूल के मानने वाले हैं।पूजते नहीं माटी के बुत,जिंदा भूत उपजाते हुए ऐसे साँचों में ढाले हैं। लकीर के फकीर भले हैं।पर देश और दुनिया में कुछ करने चले हैं।कोई कहता है कि क्यों रेतते गले हैं?अपनी-अपनी प्रकृति है, अपना - अपना स्वभाव है।केचुआ केचुआ है ,नाग नाग है। पानी पानी है, आग आग है!बारहमासी अपना एक मात्र राग है।दमन में दाग नहीं, ये दामन ही दाग है।बताएँ भी क्या तुम्हें यही अपन भाग है!

  मर जाना है ,पर लकीर से टस से मस नहीं होना है।जंगल-जंगल,नगर-नगर,गाँव - गाँव सब जगह बीज वही बोना है।वही तो अपनी चाँदी है ,वही आपन सोना है।काश हम ऐसा कर लेते यह रोना नहीं रोना है।हमारा कल का भविष्य हमारा नया छौना है। लकीर के फकीर हम थे, हैं और लकीर के फकीर ही हमें रहना है।हमारे अपने बड़े बुजुर्गों ,बड़े - बड़े गुनियों का दिन - रात यही कहना है।बुद्ध हैं, न शुद्ध हैं । हम तो स्वभाव में ही क्रुद्ध हैं। बिना शक्ति न अस्तित्व है, न लड़ा जा सकता कोई युद्ध है।सीखना हो तो सीख लो,हम हर वक्त ही सन्नद्ध हैं। आख़िर तो हम लकीर के फ़कीर हैं। जी हाँ, लकीर के फ़कीर हैं।दुनिया में हमेशा जागता हुआ अपना ज़मीर है।कौन कहता है हम गरीब हैं,हम तन- मन से अमीर हैं।कबीर हैं। 

 ● शुभमस्तु ! 

 08.07.2023◆4.00प०मा० 

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