बुधवार, 26 जुलाई 2023

ज़ालिम जलन ● [ कुंडलिया ]

 324/2023

        

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                       -1-

जलते जिंदा देखकर, पर धन, तीय, सुधाम।

होता जिनकी प्रगति का,नित ही पूर्णविराम।।

नित  ही  पूर्णविराम, न उनको  मित्र  सुहाता।

देख आग की ज्वाल, सदृश उर में भुन जाता।।

'शुभम्' न प्रगटे ताप, हाथ गुपचुप नित मलते।

दुर्जन  की पहचान , नारि - नर   ऐसे  जलते।।


                        -2-

जलता जिसको देखकर,जिंदा मानुस  एक।

होना  वैसा  चाहता, काम  न करता   नेक।।

काम न करता नेक,रात -दिन यों ही  जलना।

जले पड़ौसी देख,सदा करता ही    छलना।।

'शुभम्' हंस की चाल,काग मुड़गेरी  चलता।

दर्पण रहा निहार,स्वयं को छलता  जलता।।


                      -3-

जलता  जन अंगार बन,होता पहले  खाक।

बढ़ती देखे और की, कटती उसकी नाक।।

कटती उसकी नाक, नहीं वैसा  बन पाता।

अवसर पाता हाथ, फाड़ता उसका  छाता। 

'शुभं'फोड़ निज आँख,शगुन शुभ काला करता

धुआँ  उठे  घनघोर,मूढ़ अंतर में  जलता।।


                        -4-

जलते-जलते जल गई, मूढ़ जनों की देह।

इस-उसकी चुगली करें,नहीं किसी से नेह।

नहीं  किसी से नेह,चाहते सुख   वे अपना।

नर-नारी  मतिहीन,देखते कोरा   सपना।।

'शुभम्'  बचाए राम,नहीं सँग में  वे  चलते।

मार टाँग  की ठेस,जी रहे जलते - जलते।।


                        -5-

जलती  नारी  नारि  का,देख सुहाना   रूप।

आभूषण या  शाटिका,भावे क्यों यश - यूप।।

भावे  क्यों  यश -यूप, नारि की नारी   आरी।

मुख  में नहीं  प्रसून, निकलती उर  से  गारी।।

'शुभम्'सहज ये भाव,सास निज वधुएँ छलती।

यही  सनातन साँच, नारि आजीवन  जलती।।


●शुभमस्तु !


25.07.2023◆1.30प०मा०

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