बुधवार, 26 जुलाई 2023

मानव तन उपहार है ● [ दोहा]

 325/2023

  

[ दर्पण,उपहार,विराम हरा-भरा,समीर]

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ● सब में एक ●

जमी धूल मुख पर घनी, दर्पण माँजें लोग।

मन के भीतर क्यों नहीं, झाँक रहे ये रोग।।

कहता है दर्पण वही,जो मुख  पर  है  दृश्य।

मुख का  रूप सँवारिए, यही तुम्हारे   वश्य।।


मानव-तन उपहार है, दुर्लभ  प्रभु  की  देन।

कर्मों  से  उद्धार   कर, सुधरेगी  तब    सेन।।

पाता  है उपहार   जो,पड़े चुकाना    मोल।

वाणी  सदा  सँवारिए,बोल नहीं   अनतोल।।


आदि सभी निज जानते,ज्ञात न पूर्ण विराम।

शुभ कर्मों को कीजिए,हों विशेष  या आम।।

यति,योजक मत भूलिए,और न चिह्न विराम।

शब्द-शब्द रचना करें,सब आते   हैं   काम।।


हरा-भरा संसार है,जिसको है सुख - शांति।

अहित कर्म करना नहीं,मिले सदा मुख-कांति।

हरा-भरा अंतर  नहीं, सूखा  सब    संसार।

मन में हरियाली  भरें,कर सुकर्म  सुविचार।।


पावस सावन भाद्र में,बहता सुखद  समीर।

मोर बाग-वन नाचते,विरहिन बहुत अधीर।।

जीवन चले समीर से,वही प्राण  का  रूप।

दस प्राणों की त्राण का, साधक है तन-भूप।।


       ● एक में सब ●

हरा-भरा   उपहार    है,

                     नर- तन जीव समीर।

कब विराम  इसका  सखे,

                       उर - दर्पण की पीर।।


● शुभमस्तु !


26.07.2023◆6.30आ०मा०

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