284/2023
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
●©व्यंग्यकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
बात चाहे चाल - ढाल की हो अथवा हाल -चाल की;दोनों स्थान पर 'चाल' की अहं ताल है।चाल से ही काग है,चाल से ही मराल है।प्रदत्त पृथक - पृथक चाल के बावजूद सबको अपनी चाल बदलने की पड़ी है।कोई अपनी चाल की शॉल में नहीं रहना चाहता। उसे दूसरे की चाल की नकल में अकल जो लगानी है।भले ही इसके लिए करनी पड़े कितनी भी खींचातानी है।जब कोई अपनी चाल बदलता है अथवा बदलती है ,तो पैसेंजर से फ़ास्ट और सुपर फास्ट की ओर ही अग्रसर होती है।इससे कम में उसका काम नहीं चलता।जब तक अपनी चाल न बढ़े ,तब तक चाल चलने का आनन्द कहाँ!
चाल तो ताश के पत्तों,जुआ- सट्टा,शतरंज,राजनीति,व्यवसाय आदि में भी चली जाती है।जहाँ भी देखिए कागा ही अपनी चाल बदलता हुआ हंस पथ की ओर गमन करता है।तभी तो यह कहावत प्रसिद्ध हुई :'कागा चला हंस की चाल, चाल अपनी भी भूला।' इसमें भला क्या बुराई है ,जब कागा अपनी चाल बदल ही ले रहा है तो कौवे की चाल को तो भुलाना ही पड़ेगा न? यदि हंस बनकर भी उसे कौवे की चाल याद रही तो घर का रहेगा न घाट का ! हंस की चाल ग्रहण कर सुपर फास्ट हो जाएगा तो परिवर्तन तो आएगा। रंग नहीं भी बदले तो क्या?
यद्यपि चाल बदलकर कोई कागा हंस नहीं हो सकता, किंतु उसका अपना हीनता बोध ही उसे हंस की चाल में चलने के लिए प्रेरित करता है।वह यह जानता है कि हंस का दर्जा उससे श्रेष्ठ है,उसका अधिक मान -सम्मान है,उसका सामाजिक महत्त्व भी अधिक है।इसलिए उसका अहंकार उसे हंस न सही उसकी चाल को ही अपनाने की प्रेरणा दे देता है।और वह हंसवत विनम्र भाव से मंथर -मंथर चाल से अपने चातुर्य का चमत्कार चमकाने लगता है। चाटुकारिता की चटनी चम्मच में चटाते-चटाते कभी- कभी वह भी अपनी चपल चोंच से चख लेता है। न सही नेता,अपने को नेताजी से कम भी नहीं समझता। बिना उसके भला नेताजी को पूछे भी कौन? वह अपने को किसी हंस से कम नहीं समझता।
अपनी तरक्की भला किसको अच्छी नहीं लगती!कौन नहीं जाना चाहता नीचे से ऊपर।ऊपर जाकर अपनी औकात न भूले ,भले ही हिमाचल की ऊँचाई छूले!सावन के महीने की तरह बारहों मास झूला झूले।सही हाथ पाँव वाला हो या लँगड़ा लूले।अवश्य ही वह समय की कीमत वसूले।
जब से कागाओं के झुंड हंस दल में शामिल हुए हैं; असली और नकली हंसों की पहचान ही खो गई है।अब चाहे समाज हो या समाज सेवा,व्यवसाय हो या व्यवसायी, विधायक,सांसद मंत्री हो या गुर्गा,चमचा या कोई अन्य श्वेतवस्त्र धारी, साध्वी ,सुहागिन हो या पुंश्चली नारी,मिलावटखोर हो या शुद्धता का व्यापारी,समाजसेवी हो या उच्च पदस्थ अधिकारी या कर्मचारी : सभी जगह व्याप्त है हंस बनने की बीमारी।ऐसी भी नहीं कोई किसी शख्स की लाचारी।
वास्तविकता ही यह है कि कोई भी अपने मूल रूप में नहीं दिखना चाहता।गधे को घोड़ा,मौड़ी को मौड़ा,दर्जन को तोड़ा,भेड़ को भेड़ा, बछिया को बछेड़ा, अड्ढे को डेड़ा,बूंदी को पेड़ा दिखना ही दिखना है।इसी सोच ने रंग -बिरंगे कपड़े,वेश भूषाएँ, गहने, आभूषण, मुखचोलियाँ, मुखौटे और न जाने क्या क्या छद्मावरण खोज डाले।जैसे सादा सब्जी में गरम मसाले,दैनिक , साप्ताहिक और मासिक रिसाले,अर्गलाओं में लटकते हुए ताले, बहनों की शोभा बढ़ाते साले, भीख माँगने के लिए भाले,महफिलों में भाप छोड़ते हुए गरम -गरम प्याले, ऑरिजनल हंसों को पड़ गए जान के लाले। उन्हें ही तो सिद्ध करना है कि वे ही असली हंस हैं।गली -गली ,झील -झील घूम रहे ,वे झूठ के अंश हैं। कोई पहचान नहीं कौन श्रीकृष्ण है और कौन घाती कंस हैं।
इतना अवश्य है कि किसी औऱ की चाल चलकर कागा किसी का भला नहीं कर सकता।अब चाहे ऋषि पाराशर हों, अथवा गौतम ऋषि के छलिया इंद्र महाराज,पूतना माता हो अथवा महाभारत में किए गए अनेक छल काज, चंद्रमा ने भी लगा लिया अपने चरित्र पर दाग। उधार के पंखों से कब तक उड़ोगे ,कहाँ तक उड़ोगे। जब खुलेगा भेद,तब बड़े हो जाएंगे सूक्ष्म छेद, बहता ही दिखेगा देह से तब स्वेद।इसलिए अपने पंखों से उड़ो,अपनी चाल में ही रहो।फिर चाहे हवा में मुड़ो या गंगा में बहो।यहाँ चैन की साँस लो या वहाँ सब सहो। कहिए ! कहिए!! कुछ गलत तो नहीं कहता।
●शुभमस्तु !
01.07.2023◆1.15प०मा०
●●●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें