301/2023
[ अंकुर,मंजूषा,भंगिमा,पड़ाव,मुलाकात]
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● ©शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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● सब में एक ●
रूपराशि - रमणीयता, पिघलाए नवनीत।
उर में नव अंकुर उगे,तन हो गया सतीत।।
अंकुर उगते देखकर, रविकर हैं अभिभूत।
धीरे - धीरे छू रहीं, पावन भानु प्रसूत।।
उर- मंजूषा में भरे,अगणित मुक्ता-मीत।
कवि में वे कविता बनें, गायक में संगीत।।
मंजूषा में बंद कर,शिशु का किया प्रवाह।
माँ का उर पत्थर हुआ,निकली क्या मुखआह?
लास्य- भंगिमा देखकर,बढ़ती मन-आसक्ति।
सत प्रियता जाग्रत हुई,उमड़ी पावन भक्ति।।
क्षण-क्षण बदले भंगिमा, अद्भुत तेरा रूप।
असमंजस में खो गया, चतुर चितेरा भूप।।
आते बहुत पड़ाव हैं, लेता जीवन मोड़।
मन को तनिक विराम दें,थके नहीं बस गोड़।।
चिंतन करने के लिए,पथ में मिले पड़ाव।
जाते हो जिस राह में, चलना सह सद्भाव।।
मुलाकात को मित्रता, नहीं समझना मित्र।
हर सुगंध होती नहीं, मनभावन शुभ इत्र।।
मुलाकात ऐसी बुरी,जो घातक हो नित्य।
तमस तभी उर का मिटे,निकले जब आदित्य।
● एक में सब ●
मुलाकात की भंगिमा,
समझें पंथ - पड़ाव।
उर- मंजूषा खोलकर,
दिखा न अंकुर- घाव।।
●शुभमस्तु !
12.07.2023◆6.00!आ०मा०
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