316/2023
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● ©शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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बदला होता
दृश्य घरों का
यदि न कहीं मेक 'प होता।
दीवारों पर
जैसे कोई
चूना पोत रही नारी।
असली रूपसि
छिपी क्रीम तल
रदपुट रक्त बहा भारी।।
सजा पीठ पर
जीन सुसज्जित
ठुमक-ठुमक चलता खोता।
मुखड़ा अपना
जा सुधार गृह
नारी नहीं कभी जाती।
खाली होती
जेब न पति की
लाली रूज़ नहीं लाती।।
मँहगाई की
मार न पड़ती
छिपा अश्रु साजन रोता।
ठगने को ही
नर ने नारी
आभूषण खोजे सारे।
'लगती हो तुम
बड़ी सोहणी'
मोहक काम-बाण मारे।।
ठगी गई
वह भोली बाला
पथ में शूल पुरुष बोता।
'चंद्रमुखी तुम
गजगामिनी तुम
कमर ततैया-सी प्यारी।'
'अवगुंठन में
पाटल - कलिका
देख बुद्धि मेरी मारी।।'
'ऊभ -चूभ मन
करता मेरा
खाता मैं निशि -दिन गोता।
स्वर्ण -शृंखला
में मैंने ही
बाँधा है बाले तुमको।
वसन मखमली
में नारी - तन
है लपेटता नर बम को।।
'शुभम्' स्वार्थ में
लिपटे दोनों
समझे गात सुखद-सोता।
●शुभमस्तु !
23.07.2023◆3.30प०मा०
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