शनिवार, 20 जुलाई 2019

आदर्शों की सुगंध [व्यंग्य]

   आदर्शों की मात्र सुगंध लेना हम चाहते हैं नाक भर। अपनाने की बात होती है बस ढाक के तीन पात भर।साधुओं से लेकर संसद तक, स्कूल से लेकर कॉलेज तक, घर से लेकर बाहर तक, कथावाचकों से लेकर उपदेशकों तक, देश से लेकर विदेशों तक :सर्वत्र एक ही ध्वनि सुनाई पड़ती है-आदर्श, आदर्श और आदर्श। ऐसा करो , ऐसा करना चाहिए। ऐसे रहो , ऐसे रहना चाहिए। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कौन करे? पहले कहने वाले ही करके दिखायें न! -व्यक्ति देख सुनकर , जितना सीखता है, उतना किसी के कहने या उपदेश देने से नहीं सीखता! यह एक ऐसा कटु सत्य है , जिसके विषय में श्री तुलसीदास जी को भी लिखना पड़ा :
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। 
जे आचरहिं ते नर न घनेरे। 
   जितना आसान किसी को यह कहना है कि ऐसा करो, उतना आसान स्वयँ अपने द्वारा किया जाना नहीं है। तभी तो कहा गया है:
कथनी मीठी खांड सी, 
करनी विष की लोय। 
कथनी तजि करनी करे, 
विष ते अमृत होय।।
   लेकिन इस बात की कहीं कोई परवाह नहीं करता कि कि हम कितना करते हैं! जब हम स्वयं नहीं करते तो हमारे कहने का सामने वाले पर क्या असर पड़ सकता है? लेकिन हम हैं कि कहकर अपनी जीभ की खुजली भर मिटा लेते हैं, औऱ कहने के लिए कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री ही कर लेते हैं।परिणाम मात्र शून्य ही रहता है।
   एक शिक्षक महोदय अपनी कक्षा में बच्चों को सिगरेट नहीं पीने की सलाह देते थे, लेकिन कक्षा के बाद स्वयं कोने में जाकर जमकर धुआँ उड़ाते थे। एक दिन किसी छात्र ने उन्हें धुआँ उड़ाते हुए देख लिया , फिर क्या अगले दिन से उपदेश बंद! क्योंकि उसी छात्र के द्वारा टोके जाने का भय जो था। इसी प्रकार यदि हमारे मंत्री , सांसद , विधायक, अधिकारी, उपदेशक , साधु- संत, कथावाचक, भागवत वाचक, अपना सुधार कर लें , तो समाज औऱ देश को सुधारने की भाषणबाजी नहीं करनी पड़ेगी। पर आख़िर वे अपनी भाषणबाजी बंद क्यों करें? क्योंकि यही तो उनकी रोजी - रोटी का मज़बूत आधार - कार्ड है।यदि समाज औऱ देश सुधर ही गया तो एक दिन उनकी आवशयकता ही समाप्त हो जाएगी ! फिर उन्हें भला पूंछेगा कौन? जब मरीज बने रहेंगे , तभी तो डाक्टर के महत्व का पता रहेगा। ये सभी उपदेशक समाज और देश के ऐसे डाक्टर हैं , जो कभी नहीं चाहते कि व्यक्ति ,देश औऱ समाज सुधरे! उनका काम केवल और केवल भाषण करना भर रह गया है। 'ज्यों-ज्यों दवा की, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया।' वाली स्थिति है। रामायण पढ़- सुनकर न तो कोई राम हुआ , न सीता न भरत न लक्ष्मण। पर घर -घर रावण दर - दर लंका, इतने राम कहाँ से लायें। विभीषणों औऱ शूर्पणखाओं की कोई कमी नहीं है। भागवत सुनी , पर कभी नहीं गुनी। इस कान सुनी ,उस कान चली। सबने यही कहा कि ऐसा करना चाहिए। राम , कृष्ण, सीता, लक्ष्मण , भरत स्वामी विवेकानन्द , महात्मा गांधी आदि सबने अपने कृतित्व से करके दिखाया। पर हमने केवल दूसरों को सिखाया कि राम बनो, सीता बनो, स्वयं कभी अपने चरित्र में रामत्व औऱ सीतात्व का उद्भव नहीं होने दिया। स्वयं वही बने रहे , जो थे। औऱ कसम खाली कि हम नहीं सुधरेंगे, चाहे जग सुधरे।
   आदर्श औऱ यथार्थ में बहुत अंतर है, दूरी है।जिस दिन आदर्श ही हमारा यथार्थ बन जाएगा।इन भारी -भरकम ग्रंथों की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। जब आदमी अपने आदमीपन को समझ लेगा, वह आदमी से देवत्व की ओर कई कदम आगे बढ़ जाएगा। पर समस्त उपदेशकों के लिए खुशखबरी है कि ऐसा होगा नहीं , क्योंकि फिर वे कैसे जी सकेंगे! उनका परिपोषण तो इसीसे जिंदा है।

💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
🏵 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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