गुरुवार, 11 जुलाई 2019

पावस प्रणय -संकेत [अतुकान्तिका]

बदली बरसी
धरती हरषी,
द्वार खड़ी 
टेके ठोड़ी पर
मेंहदी रंजित
लाल हथेली,
एक वियोगिनि
कामिनि तरसी,
यौवन -सरिता 
उफ़न-उफ़न नित
तोड़ बाँध के
सबल किनारे,
गिरती पड़ती,
याद पिया की
सजल नयन से
झर-झर बरसी,
प्रोषितपतिका
कोमल लतिका।

जेठ मास की 
प्यासी सरसी,
खोले  अधर 
दरारों के
 अनबोली रहती,
सब कुछ सहती,
उठाती पलक
नयन से,
नील अम्बर 
नित तकती 
प्यासी मरती।

केंचुआ गिजाई
वीर बहूटी कहाँ गई!
झींगुर की झनकार
दादुरों के दल की
टर -टर्र नई,
प्यारी दादुरि !
खोज रहा है
 दादुर कर स्वर,
कहाँ गई 
आओ पास हमारे
तुम हो जहाँ छिपी।

गरजे  बादल 
चमकी चपला,
मोर पुकारे -
'चलो मोरनी
ओट मेंड़ की
बगिया में हम नृत्य करें,'
'मैं  क्या नाचूँ!
तुम्हीं दिखाओ प्रियवर
अपना नाच 
देख तव
दोनों हम मनमोद भरें।
जागे यदि सौभाग्य
नेह के झूले में
झोटे लगा -लगा कर
अपनी गोद भरें।'
'मत शरमाओ 
इतना भी तुम
अरे ! मयूरी  भोली!
मधुर मम बोली
इतने  भी  क्यों
दूर रहें।'

तोड़ कगारें
सागर प्रियतम से
करने को  अभिसार
खेत - बाग-वन लाँघ,
उफ़नती सरिता
राह -कुराह न देखे!
पर मर्यादा तोड़
नहीं सागर इतराए,
सरिता आतुर
प्रिय सागर से,
मिलन -क्षणों में
बल -बल खाए,।
निज अस्तित्व मिटाए,
भले तन 
मैला हो जाए?

पर्वत -पिता
सरित -बाला को
निर्मलता मर्यादा के सँग
विदा कराए।

पावस के 
प्रबल प्रणय -संकेत
प्रिया -हिय - हेत
न सूखी रेत 
मानवी -मानव में संचेत।
धरती से आकाश
मिल रहा
बादल के मिस,
झरता नभ का नेह
टपकती नन्हीं,
बुँदियाँ रिस -रिस,
निर्वसना धरती ने
पहन ली हरित शाटिका,
आती है हर बार
प्रिय से मिलने में लज्जा,
हर दिन करती 
निज वसनों की
 नई -नई तन -सज्जा।
फिर क्या !
नेहदान का मान 
रखा धरती ने,
नवल नेह संचार
किया 'शुभम' सुरती ने।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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