सोमवार, 22 जुलाई 2019

विरहिन [विधा:सायली]

मटकी
मटक - मटक
सिर   पर     धर
पनघट  चली
घरनी।

रात
अँधेरी काली
कुंडी  खटका  रही
मिलन हित
प्रीतम।

 पायल
 बजी छमाछम
सास   जग   पड़ी
कैसे होगा
मिलन।

बोले
पिउ -पिउ
पपीहा  सावन मास
जलाए जियरा
बैरी।

कोयल
काला  कूके
कुंज  लता   द्रुम
याद  सताए
साजन।

सावन
बरसे सरसे
मन वृंदावन पावन
श्याम
न आए।

टपकी
स्वाती बूँद
सीप  मुख  खोले
सृजित मोती
होता।

चातक
प्यासा - प्यासा
स्वाति   बिंदु  कण
तृप्त हुआ
तन।

सावन
आया मनभाया
विरहिन निरत प्रतीक्षा
पिया  आएँगे
कब ?

बीती
लम्बी  अवधि
न  पावस  आया
अपना क्या
वश?

💐 शुभमस्तु!
✍रचियता ©
🦜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...