||दोहा ||
चकवी से पूछो सखे!
विरह मिलन की बात।
बिना मिलन कैसे कटे,
तेरी सारी रात।।
||चौपाई ||
मिलन विरह की रीति बनाई।
बाद निदाघ सु पावस आई।।
मिलन विस्मरण विरहजगाता
मिलते उर उस ओर भगाता।।
युग- सा लगे विरह पल भर का।
युग का मिलन सूक्ष्म लघु कण सा।।
विरह - मिलन का खेल पसारा
विरही का संसार असारा।।
|| दोहा ||
अश्रु विरह के अनल सम,
दाहक देह जलाय।
मिलन - अश्रु बौछार से,
पावस में झरि जाय।
|| चौपाई ||
तपन विरह की जब से लागी।
मिलन कामना उर अनुरागी।।
जीवन का आधार मिलन है।
बिना मिलन अति शूल चुभन है।।
मिलते युगल अधर जब प्यासे।
बनता चुम्बन रुकें न साँसें।।
समय ठहर जाता है ऐसे।
रुक जातीं दो सुइयाँ जैसे।।
|| दोहा ||
सुध -बुध तन की क्यों रहे,
एक प्राण दो देह।
ऐसा मिलन सराहिये,
लेश नहीं सन्देह।।
||चौपाई||
सागर से मिल जाती सरिता।
कवि की बन जाती है कविता।।
खग चकोर शाखा पर होता।
रात -रात भर क्या वह सोता?
किरणें चुगता चारु चाँद की।
मात्र चाहना रश्मि - स्वाद की।
मोर नाचता निपट अकेला।
प्रिया मोरनी मिलन दुकेला।।
||दोहा||
पशु - पंक्षी नर - नारि सब,
जल थल नभचर जीव।
मिलन हेतु तज लाज दें,
भंग करें हर सींव।।
||चौपाई||
हुआ अँधेरा चाँद चमकता।
भुजपाशों में बाँध उमगता।।
सलज चाँदनी फैल रही है।
मौन बनी संयोग यही है।।
अम्बर अवनी से आ मिलता।
रिमझिम से हर तृण तृण खिलता।
बादल गरज -गरज कर छाता।
मिलन धरा को बहुत सुहाता।।
||दोहा||
प्रेयसि प्रियतम का मिलन,
प्रकृति दत्त उपहार।
सृष्टि सृजन का हेत है,
विकसित यह संसार।।
||चौपाई||
विरहिन प्यासी करे प्रतीक्षा।
कब आएँ पिय शमन तितीक्षा।।
आता जब मनभावन सावन।
होता मिलन प्रिया से पावन।।
रातें जब सुहाग की आतीं।
तन -मन की इच्छा पुर जातीं।
अपनी - अपनी सबकी शैली।
क्रीड़ा वही प्रेम सँग खेली।।
जड़ - चेतन संसार में,
विरह -मिलन का योग।
एक -एक के योग से,
'शुभम ' सृजन संयोग।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें